पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५

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२० अभिधर्मकोश के सदृश दूसरे को कुछ विज्ञापित नहीं करता (विज्ञपयति) विज्ञपति के स्थान में व्या २९. ३२ का विज्ञापयति पाठ है। 'इष्यते' यह दिखाने के लिए है कि आचार्य यहाँ वैभापिक मत का निर्देश करते हैं, अपने मत का नहीं। समासतः विज्ञप्ति और समाधि से संभूत कुशल-अकुशल रूप अविज्ञप्ति है। भूतानि पृथिवीधातुरन्तेजोबायुधातवः । धृत्याविकर्मसंसिद्धाः खरस्नेहोष्णतेरणाः ॥१२॥ १२ ए-बी. भूत या महाभूत पृथिवीधातु, अधातु, तेजोधातु और वायुधातु हैं।' [२२] यह चार धातु-चतुष्टय हैं । यह धातु इसलिए कहलाते हैं क्योंकि यह अपने स्वलक्षण और उपादायरूप या भौतिक का धारण करते हैं। यह 'महान्' कहलाते हैं । यह महान् हैं क्योंकि यह सर्व उपादायरूप के आश्रय हैं । अथवा यह महान् हैं क्योंकि पुथिवी, अप, तेज, वायु स्कन्ध में जौ महाभूतों की वृत्तियाँ युगपत् उद्भूत होती हैं महाभूतों का महासन्निवेश होता है (विभापा, १३१, ६, १२७, ५)।' किस कारित्र से इन धातुओं की सिद्धि होती है और इनका स्वभाव क्या है ? १२ सी-डी. धृति आदि कर्म से इनकी सिद्धि होती है । यह खर, स्नेह, उष्णता, ईरण हैं।' पृथिवी-अप-तेजो-वायुवातु की सिद्धि यथाक्रम धृतिकर्म, संग्रहकर्म, पक्तिकर्म, व्यूहन- कर्म से होती है। व्यूहन से वृद्धि और प्रसर्पण समझना चाहिए। यह इनके कर्म हैं। भूतानि पृथिवीधातुरप्तेजोवायुधातवः [व्याख्या ३२.३१] संघभत्र का व्याख्यान:- महाभूतों को धातु क्यों कहते हैं ?--क्योंकि यह सर्व रूपधर्मों के उत्पत्ति-स्थान है। स्वयं महाभूतों की उत्पत्ति महाभूतों से होती है। लोक में उत्पत्ति-स्थान को 'धातु' कहते हैं। यथा स्वर्ण आदि को सनि को स्वर्णादि धातु कहते हैं। अथवा वह 'धातु' इसलिए कह- लाते हैं क्योंकि वह विविध दुःखों के उत्पत्ति-स्यान हैं। उदाहरण, यथापूर्व । कुछ का कहना है कि वह 'धातु' इसलिए कहलाते हैं क्योंकि वह महाभूतों के स्वलक्षण और उपादायरूप दोनों को धारण करते हैं। धातुओं को महाभूत भी कहते हैं-- भूत क्यों ? महाभूत क्यों ? जव उपादायरूप के विविध प्रकार (नीलादि) को उत्पत्ति होती है तव उनमें से प्रत्येक विविध आकारों में उपस्थित होता है । इसीलिए उन्हें 'भूत' कहते हैं। अन्य आचार्यों के अनुसार सत्त्वों के कर्म के अधिपति- प्रत्ययवश यह सदा वर्तमान होते हैं। इसीलिए उन्हें 'भूत' कहते हैं। अथवा धर्मों के उत्पाद फो भव कहते हैं .....। २, पृ० १४४, ३१३ देखिए। तदुद्भूतवृत्तिए पृथिव्यप्तेजोवायुस्कन्धेषु तेषु एपा महासनिवेशत्यात् [व्याख्या ३३.५] । 'भूतानि का निर्वचन 'भूतं तन्वन्ति है। व्याख्या ३३ . प्रत्यादिकर्मसंसिद्धाः खरस्नेहोष्णतेरणाः । [व्याख्या ३३.९] .c} जल (शब्द ये लौकिया अर्थ में) नावों का संधारण करता है। इसलिए पृथिवीधातु अपनी वृत्ति को यहां उद्भूत करता है [व्याख्या ३३.१२]; यह उष्ण है, इसमें ईरण है इत्यादि। २.२२ देखिए । धम्मसंगणि, ९६२-९६६, काम्पेण्डियम, एपेण्डिक्स पृष्ठ २६८. १ - १ में