पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश विषयों की पटुता तुल्य है तो पूर्व जिह्वाविज्ञान उत्पन्न होता है क्योंकि सन्तति भोजन की इच्छा से आवजित होती है। विक्षिप्ताचित्तकस्यापि योऽनुबन्धः शुभाशुभः । महाभूतान्युपादाय सा हविज्ञप्तिरच्यते ॥११॥ हमने विज्ञानकाय के इन्द्रियों के अर्थों का निर्देश किया है और यह भी बताया है कि इन अर्थों का ग्रहण कैसे होता है । अब हम रूपस्कन्ध के ११ वें प्रकार अविज्ञप्ति का निर्देश करते हैं। जिस पुद्गल का चित्त विक्षिप्त है अथवा जो अचित्तक है उसका भी महाभूतहेतुक कुशल और अकुशल प्रवाह अविज्ञप्ति कहलाता है।' जिसका चित्त विक्षिप्त है' अर्थात् जिसका चित्त अविज्ञप्ति- समुत्थापक चित्त से अन्य है---यथा एक अकुशल चित्त, जब अविज्ञप्ति का समुत्यापक एक कुशल चित्त है। [२१] 'जो अचित्तक है' अर्थात् जो असंशिसमापत्ति और निरोधसमापत्ति में समापन्न है (२.४२)। 'अपि' शब्द सूचित करता है कि अविक्षिप्त पुद्गल में और सचित्तक पुद्गल में भी जिसका चित्त दो समापत्तियों में निरुद्ध नहीं हुआ है अविज्ञप्ति होती है। 'शुभ-अशुभ' = कुशल-अकुशल। 'अनुबन्ध' =प्रवाह 'महाभूतान्युपादाय' : प्राप्ति-प्रवाह (२. ३६) से अविज्ञप्ति-प्रवाह का भेद दिखाने के लिए ऐसा कहा है । अविज्ञप्ति महाभूतों पर आश्रित है क्योंकि भूत उसके जनन-निथयादि हेतु है (२.६५, विभापा, १२७, ६)। 'सा हि...' अविज्ञप्ति के नाम-करण को ज्ञापित करने के लिए है । यद्यपि यह अनुबन्ध कायविज्ञप्ति और वाग्विज्ञप्ति के सदृश रूप-स्वभाव और क्रिया-स्वभाव है तथापि यह बिनप्ति १ विक्षिप्ताचित्तकस्यापि योऽनुबन्धः शुभाशुभः । महाभूतान्युपादाय सा ह्यविज्ञप्तिरिप्यते ॥[व्याख्या २९.३] ४.३ डी आदि में हम अविज्ञप्ति का सविस्तर वर्णन करेंगे। यह वह कर्म है जो दूसरे को कुछ विज्ञापित नहीं करता। इस प्रकार यह मानस कर्म के सदृश है। किन्तु यह रूप है । इस प्रकार यह कायिक और वाचिक कर्म के सदृश है। हम देखेंगे कि सौत्रान्तिक और वसुबन्धु अवि- शप्ति नामक धर्मविशेष के अस्तित्व को नहीं स्वीकार करते। संघभद्र का कहना है कि अविज्ञप्ति के जिस लक्षण को वसुबन्धु ने व्यवस्थापित किया है वह वैभापिकवाद का अनु- वर्तन नहीं करता। यशोमित्र ने (व्याख्या, ३०.२१-३२.३०) उनके दोषों को (न्याया- नुसार से) उद्धृत किया है और उनका प्रतिषेध किया है। समयप्रदीपिका में संघभद्र वसुबन्धु को कारिका के स्थान में एक अन्य कारिका देते हैं। यशोमित्र इसे उद्धृत करते हैं: कृतेऽपि विसभागेऽपि चिते चित्तात्यये च यत्। व्याकृताप्रतिघं रूपं सा ह्यविज्ञप्तिरिष्यते ॥ (व्या ३२.२१)