पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३८

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३२८ अभिधर्मकोश रागोपक्लिष्ट चित्त अविमुक्त है तो यह चित्त अवश्य रागपर्यवस्थित (राग-संप्रयुक्त) नहीं है किन्तु यह रागोपहत है। [राग की समुदाचारता नहीं है, (समुदाचरन्) च्या ३०१.३१] किन्तु उसकी वासना के आधान से चित्त उपहत होता है। जब योगी राग से व्यावृत्त होता है [अर्थात् उस वासना का निरोध कर चित्त-दौष्ठुल्य का व्यावर्तन करता है] तब चित्त विमुक्त होता है। इसी प्रकार अविद्या (कुप्रज्ञा)से क्लिष्ट प्रज्ञा शुद्ध नहीं होती : कुशल होने पर भी यह अविद्या से उपहत होती है। वादी को उसकी परिकल्पना से कौन निवारण कर सकता है ? अविद्या प्रज्ञास्वभाव नहीं है। जिस वादी का मत है कि अविद्या सर्वक्लेशस्वभाव है उसका भी इसी से प्रतिषेध होता है । यदि अविद्या सर्वक्लेशस्वभाव है तो संयोजनादि. में इसका पृथक् [९२] वचन नहीं हो सकता। यह दृष्टि और अन्य क्लेशों से संप्रयुक्त नहीं है । आगम का यह वचन न होना चाहिये था कि “रागोपक्लिष्ट चित्त विमुक्त नहीं होता "किन्तु उसे "अविद्या से उपक्लिष्ट चित्त" कहना चाहिये था। क्या आप यह कहेंगे कि मत के विशेषणार्थ ऐसा कहा है और सूत्र का कहने का यह आशय है कि “रागलक्षणा अविद्या से उपक्लिष्ट चित्त विमुक्त नहीं होता"? इस विकल्प में आगम को इसका भी अवधारण करना चाहिये कि अविद्या का वह कौन सा प्रकार है जो प्रज्ञा की विशुद्धि में प्रतिवन्ध है। किन्तु आगम कहता है कि अविद्या से उपक्लिष्ट प्रज्ञा शुद्ध नहीं होती।" 9 ५ को हि परिकल्पयन्त निवर्तयति-व्याख्या : कल्पनामात्रमेतद् आगमनिरपेक्षमिति कथयति व्या ३०१.३४]--फा-पाओ और पू-कुआंग का इसमें एकमत्य नहीं है कि वसुबन्धु यहाँ सौत्रान्तिक के विरुद्ध वैभाषिक पक्ष लेते हैं अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में जब आचार्य यह कहते हैं कि बादी को कौन उसको कल्पनाओं से रोक सकता है तो या तो वह अपना मत देते हैं या वैभाषिक वचन का उल्लेख करते हैं। व्याख्या प्रथम विकल्प को स्वीकार करती है। संधभद्र कहते हैं कि "सौत्रान्तिक का कहना है कि कुशल प्रज्ञा व्यवकीर्ण हो सकती है...."हम जानते हैं कि वह वसुबन्धु का उल्लेख सदा 'सौत्रान्तिक' करके करते हैं। चीनी टोकाकारों का विचार है कि वसुबन्धु इस वाद का प्रतिषेध करते हैं कि कुशल और क्लिष्ट प्रज्ञा का व्यतिपंग होता है किन्तु उनका यह मत नहीं है कि अविद्या एक पृथक् धर्म है। शुआन चाड : "यथा राग चित्त से भिन्न है उसी प्रकार प्रज्ञा से भिन्न अविद्या एक धर्मान्तर है। यह वाद सुष्छु है।" भदन्त श्रीलाभ (व्या--श्रीलात) कहते हैं कि "अविद्या सर्वक्लेश की सामान्य संज्ञा है। रागादि क्लेश से व्यतिरिक्त कोई अविद्या नहीं है (अविद्येति सर्वक्लेशानामियं सामान्य- संज्ञा न रागादिक्लेशव्यतिरिक्ताऽविद्या नामास्ति) व्या ३०२.२]--इस सूत्र के अनुसार "हे महाकौण्ठिल ! यथाभूत नहीं जानते हैं (न प्रजानाति) इससे अविद्या कहलाती है......।" संयुत्त, ३. १७२ : सहाकोठितो (या महाफोदिठको) ....अवोच। अविज्जा अविजाति आवुसो सारिपुत्त वुच्चति....] वास्तव में सब क्लेश अज्ञानस्वरूप हैं क्योंकि वह धर्मों का विपरीत ग्रहण करते हैं (विपरीतग्रहणतः) नजियों १२०४ में यह हरिवर्मा का वाद है। साएको के अनुसार वबन्धु का यहाँ हरिवर्मा से अभिप्राय है।