पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३३

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तृतीय कोशस्यान : लोफनिवेश ३२३ [८४] वाल या पृथग्जन यह न जान कर (अप्रजानन्) कि प्रतीत्यसमुत्पाद संस्कारमात्र है अर्थात् संस्कृत धर्म है---[प्रज्ञा का यह अभाव राग से असंप्रयुक्त आवैगिकी अविद्या है- बात्मदृष्टि (५.७, १२) और अस्मिमान (५. १० ए) में अभिनिविप्ट होता है । वह सुख 'और भदुःखासुख के लिये काय-बाक्-मन से त्रिविध कर्म आरब्ध करता है : ऐहिक सुख के लिये अपुग्य', आयति-सुख के लिये कामावचर पुण्य, प्रथम तीन ध्यान के सुख के लिये और अवं- भूमियों के (४.४६ ए) अदुःखासुख के लिये 'आनिज्य" कर्म। यह कर्म अविद्याप्रत्ययवश संस्कार हैं। विज्ञानसन्तति का अन्तराभव के साथ सम्वन्ध होने से कर्माक्षेपवश यह सन्तति अमुक अमुक [८५] अतिविप्रकृष्ट गति भी ज्वाला के समान जाती है अर्थात् निरन्तर उत्पन्न होती जाती है। संस्कारप्रत्ययवश यह विज्ञान है : विज्ञान का यह निर्देश उपपन्न है। हम प्रतीत्यसमुत्पाद सूत्र के इस विज्ञानांग-निर्देश से सहमत हैं : "विज्ञान क्या है ?--पट् विज्ञान-काय।" विज्ञानपूर्वगम नामरूप की उत्पत्ति इस गति में होती है। यह पञ्च-स्कन्ध है। विभंग में ऐसा निर्देश है २ : "नाम क्या है ? चार अरूपी स्कन्ध । रूप क्या है ? यत् किञ्चित् रूप.. नाम और रूप यह उभय नामरूप कहलाते हैं।" प्रलापः, दुःख, यया २.७ ए में; दौमनस्य यथा २.८वी में; उपायास पिच्छिमवर्ग दौर्मनस्यम् अथवा दूसरों के अनुसार, शोकपरिवेवपूर्वक श्रमः (व्याख्या)। शालिस्तम्ब ( थियरी-आफ वेल्व फाजेज, ८० ) के लक्षण देखिये अभिधम्मसंगह, ३६: सोकादिवचनं पनत्य निस्सन्दफलनिदस्सन बिसुद्धिमम्ग, ५०३ (उपायास सर्वव्यसन से होता है) : दूसरे हवाले, थियरी माफ़ ट्वेल्ब कालेज ३१-३२ हम जानते हैं कि अजन्ता के भवचक्र में शोकादि का निदर्शन किया है, जे. प्रोफिलुरफी, बालो हि संस्कारमानं [प्रतीत्यसमुत्पाद] अनजानन् आत्मदृष्टयस्मिमानाभिनिदिष्टः [च्या २९९.८] । व्याख्या अप्रजानन् का अर्थ इस प्रकार करती है 'आवेणिकोमविद्या दर्शयति । देखों प०६३, ८८ आयतिसुखाय पुण्यम् .......... कामावचरं कुशलं कर्म । ऐहिकसुखार्थम् अपुण्यम् ध्या २९९.१२] ' आनियमिति। इगिः प्रकृत्यन्तरं तस्यवतद्रूपम् [ध्या २९९. ११] एजतेरेतद्रूपमान- ज्यम् इति वा पाठ:--३.१०१ वी देखिये। 'हमारे लिये विज्ञानांग मरणभव से लेकर उपपत्तिमव पर्यन्त सर्व विज्ञान-सन्तति है : दूसरे शब्दों में अन्तराभव के प्रतिसन्धि-चित्त से लेकर यावत् उपपत्ति-क्षण (उपपत्तिमच, गति का आदि) अन्तराभव को विज्ञान-सन्तति व्या २९९.२२]--इस सन्तति में मनो- विज्ञान और चक्षुविज्ञानादि पंच विज्ञानकाय हैं ध्या २९९.२३] । अतः हम विमानांग- निर्देश ए से सहमत हैं :विज्ञानं कतमत् । पड़ विज्ञानकायाः। यदि विज्ञानांग गति का प्रतिसन्धि-चित्त (उपपत्ति भव)होता तो सूअन्यचन इस प्रकार होता : विज्ञानं कसम । मनोविज्ञानम् । क्योंकि "मूलच्छेद.... मनोविज्ञान में ही इष्ट है" (३. ४२ ए) भाग्य-विभंग एवं निर्देशात- व्यारया : प्रतीत्यसमुत्पादसूत्रै नामपविभंग एवं २