पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश १. कई कारणों से : १. अवधारणार्थ । प्रथम पर्याय से यह सिद्ध होता है कि अविद्या के होने पर संस्कार होते हैं किन्तु यह सिद्ध नहीं होता कि केवल अविद्या के होने पर संस्कार होते हैं। द्वितीय पर्याय पूर्व पर्याय का अवधारण करता है : अविद्या के ही उत्पाद से संस्कारों का उत्पाद होता है; २. अंग-परम्परा दिखाने के लिये : इस अंग (अविद्या) के होने पर यह (संस्कार) होता है ; इस अंग (संस्कार) के उत्पाद से--दूसरे के उत्पाद से नहीं-यह अंग (विज्ञान) उत्पन्न होता है। ३. जन्म-परम्परा दिखाने के लिये : पूर्वभव के होने पर प्रत्युत्पन्न भव होता है; प्रत्युत्पन्न भव के उत्पाद से अनरगत भव उत्पन्न होता है; ४. प्रत्ययभाव दिखाने के लिये जो [८२] यथायोग भिन्न है (साक्षात् पारम्पर्येण वा), [व्याख्या २९७. १८] : अविद्यादि अंगों का प्रत्ययभाव साक्षात् है -"उसके होने पर यह होता है" या पारम्पर्येण होता है -"उसके उत्पाद से यह उत्पन्न होता है।"-साक्षात्, यथा क्लिष्ट संस्कार अविद्या के समनन्तर उत्पन्न होते हैं। पारम्पर्य से, जब कुशल संस्कार (२.६२ ए) उत्पन्न होते हैं। दूसरी ओर अविद्या संस्कारों का साक्षात् प्रत्यय है और विज्ञान का पारम्पर्येण प्रत्यय है। २. एक दूसरे व्याख्यान के अनुसार प्रथम पर्याय अहेतुवाद के प्रतिषेध के लिये है। अहेतुवाद वह वाद है जिसके अनुसार हेतु के न होने पर भाव होता है (असति हेतौ भावो भवति) व्याख्या २९७ . २७] । दूसरा पर्याय नित्य हेतुवाद के प्रतिषेधार्थ है जिसके अनुसार अनुत्पत्तिमत् नित्य प्रकृति, पुरुषादिक से वस्तुओं की उत्पत्ति होती है । इस कल्पना में प्रथम पद का ग्रहण निरर्थक है क्योंकि द्वितीय पर्याय से उभयवाद का प्रतिषेध सिद्ध होता है। ३. किन्तु कुछ ऐसे तीथिक हैं जिनकी कल्पना है कि "अविद्या के आश्रयभूत आत्मा के होने पर संस्कार-विज्ञानादि होते हैं। उनका भाव होता है । अविद्या के उत्पाद से संस्कारों की उत्पत्ति होती है", एवमादि । दूसरे शब्दों में वह एक आत्मा की कल्पना करते हैं जो धर्मों के उत्तरोत्तर प्रत्ययभाव के लिये आश्रय का काम देता है। इस कल्पना का प्रतिपेध करने के लिये भगवत् निर्धारित करतेहैं : "जिसके (अविद्या के) उत्पाद से जो (संस्कार) उत्पन्न होता है उसके ही होने पर वह होता है, अन्य किसी आश्रय के होने पर नहीं।" अन्यथा प्रथम पर्याय को इस प्रकार कहेंगे : "आश्रयभूत आत्मा के होने पर और अविद्यादि के होने पर संस्कारादि होते हैं" और द्वितीय पर्याय को इस प्रकार कहेंगे : "यह सत्य है कि अविद्यादि के उत्पाद से संस्कारादि ३ ५ श्रीलाभ का निर्देश (व्याख्या) [जिन्हें संघभद्र सामान्यतः 'स्थविर' कहते है]; फा-पायोः सौत्रान्तिकों का भिन्न निर्देश; यू-कुआंग "स्थविर-तोड़-हिनो"; संघभद्र, "स्थविर- तोङ-किआन"। व्याख्या इस परिच्छेद के लिये कहती है कि यह आचार्य का मत है-एतत् सर्वमानार्य- मतम् व्या २९७.२६] १ मारया के अनुसार यह स्थविर वसुवर्मा का व्याख्यान है व्याख्या २९७.२७] जो पू-कुआंग के चे-साओ हैं। एक वसुवी नजियो १२६१ के शास्त्रकार हैं। यह ग्रन्य चतुःसत्यशास्त्र है। २१