पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३०

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अभिधर्मकोश को सूचित करने के लिये भी 'क्त्वा' प्रत्यय होता है : “दीप को प्राप्त होकर तम विनष्ट होता है अथवा 'जमुहाई लेकर वह सोता है। ऐसा उसके लिये नहीं कहते जो जमुहाई लेता है, मुख संवृत करता है और पश्चात् सोता है। अन्य आचार्य प्रतीत्यसमुत्पाद शब्द का एक भिन्न अर्थ करके 'क्त्वा' सम्बन्धी दोष का परिहार करते हैं : 'प्रति' वीप्सा के अर्थ में है; 'सम्' समत्राय के अर्थ में है ; 'इत्य' 'गमन में साधु', 'अनवस्थायी' है; उत्पूर्वक पद् धातु का अर्थ प्रादुर्भाव है । अतः प्रतीत्यसमुत्पाद = "उस उस हेतु- सामग्रीवश विनश्वरों का समवाय में उत्पाद । [८१] यह कल्पना प्रतीत्यसमुत्पाद के लिये युक्त है किन्तु इस सूत्र में कैसे होगा : "चक्षु और रूपप्रत्ययवश (प्रतीत्य) चक्षुर्विज्ञान उत्पद्यमान होता है।" भगवत् प्रतीत्यसमुत्पाद का निर्देश पर्यायद्वय से क्यों करते हैं : "१. उसके होने पर यह होता है; २. उसकी उत्पत्ति से यह उत्पन्न होता है ?" भार २ ३ "अथवा इसकी पूर्व सत्ता है।" किन्तु चतुर्थ पाद को 'असन् पुरापि वा' भी पढ़ सकते हैं । अर्थात् “अनिष्ठा के परिहार के लिये आप कहेंगे कि यह असत् उत्पद्यमान होता है। यह पुनः उसी वाद को लौटना है जिसका प्रतिषेध पहली पंक्ति में हो चुका है असनुत्पद्यते यत्"। सहभावेऽपि च क्त्वास्ति दीपं प्राप्य तमोगतम् । आस्यं व्यादाय शेते वा पश्चात् चेत् कि न संवृते॥ [व्या २९६.८] व्याख्यान ह्यसौ पूर्व मुखं व्याददाति विदारयति पश्चाच्छेते । कि तहि मुखं व्याददन्छेते स मुखं ज्यादाय शेत इत्युच्यते।. • च्या २९६.१५] यह भदन्त श्रीलाभ का व्याख्यान है (व्याख्या का पाठ 'श्रीलात है) [च्या २९६ . २२], प्रतिर्वीप्सार्थ इति नानावाचिनाम् अधिकरणानां सर्वेषां क्रियागुणाभ्याम् इच्छा वीप्सा। तामयं प्रतिद्योतयति ॥ इतौ गतौ साधव इत्याः। तत्र साधुरिति यत्प्रत्ययः। इतौ विनष्टौ साधवोऽनवस्थायिन इत्यर्थः॥ समुपसर्गः समवायार्थ द्योतयति ॥ उत्पूर्वः पदिः प्रादुर्भावार्थों धात्वर्थपरिणामात् ॥ तां तां सामग्री प्रति इत्यानां विनश्वराणां समवायनोत्पादः प्रतीत्यसमुत्पादः। --कोई धर्म कभी अकेले नहीं उत्पन्न होता है, कोश, २.२२ इत्यादि । प्रत्यय का व्याख्यान देखिये, ७.पृ. ३८ टि,४॥ संयुत्त, २.७२, ४.३३, मिलिन्द, ५६ इत्यादि इनस्मि सति इदं होति । इमस्स उप्पादा इदमुप्पज्जति. .....यदिदं अविज्जा पच्चया संयुत्त, १२, २०, मज्झिम, ३.६३, महावस्तु, २.२८५, मध्यमकवृत्ति, ९, थिअरी, आव वेल्व काजेज, पृ० ४९ (१)वसुबन्धु प्रथम निर्देश को पसन्द करते हैं--२-४ युक्तियाँ स्थविर-शिष्य भदन्त राम की हैं। यह पू-कुआंग के अनुसार है (जो संघभद्र का अनुसरण करते हैं)। (शिष्य ति-से) १२) दूसरा निर्देश स्थविर वसुवर्मा का है व्याख्या २९७ . २७); फा-पाओ के अनुसार यह भिन्न निर्देश सौत्रान्तिकों का है (किड-पू-इ-चे) पाँचवौ निर्देश भी]; पूउ-कुआंग के अनुसार "सौत्रान्तिक आचार्य जो भिन्न मत रखता है" (किड्-पाउ-इ-चौआइ) भदन्त चे-त्साओ (वसुवर्मन्) है। संघभद्र के अनुसार, 'स्थविर तु-ताइ [ स्यविर-पाक्षिक है। तोयिकों का निर्देश। पूर्वाचार्यों का (सौत्रान्तिक) निवेश । १ २ t २ }