पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१७

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31 तृतीय कौशस्यान : लोकनिर्देश चक्षुरादि चार आयतनों के उत्पत्ति-काल में दो पूर्ववर्ती आयतनों का व्यवस्थापन [पट् समुदाय में होता है। २२ वी, षडायतन, त्रिकसन्निपात या स्पर्श के पूर्व । षडायतन पांच स्कन्ध है; इन्द्रियों के प्रादुर्भाव-काल से इन्द्रिय, विषय और विज्ञान के सन्निपात-काल तक। [६४] २२ सी-डी. सुख-दुःखादि वेदना के कारण-ज्ञान को शक्ति के उत्पन्न होने से पूर्व स्पर्श है। यावत् वालक सुख दुःखादि के कारण को परिच्छिन्न करने में समर्थ नहीं होताः "यह सुख का कारण है... तब तक की अवस्था [जो जातावस्था में व्यवस्थापित होती है] स्पर्श कहलाती है । वित्तिःप्राङ्मयुतात् तृष्णा भोगमैयुनरागिणः। उपादानं तु भोगानां प्राप्तये परिधावतः ॥२३॥ २३ ए . वेदना, मैथुन से पूर्व । वेदना को कारिका में 'वित्ति' कहा है । यावत् मैथुन-राग का समुदाचार नहीं होता, तब तक की अवस्था वेदना है। [इस अवस्था को 'वेदना' कहते हैं क्योंकि वहाँ वेदना के कारणों का प्रतिसंवेदन होता है : अतः 'यह वेदना प्रकर्षिणी अवस्था' है] व्या २८५.१८] २३ वी. भोग और मैथुन की कामना करने वाले पुद्गल को अवस्था तृष्णा है। रूपादि कामगुण (३. पृ.७)और मैथुन के प्रति राग का समुदाचार होता है । यह तृष्णा की अवस्था है। इसका अन्त तव होता है जब इस राग के प्रभाव से पुद्गल भोगों की पर्येष्टि आरम्भ करता २३ सी-डी. उपादान का तृष्णा से विवेचन करते हैं: यह उस पुद्गल की अवस्था है जो भोगों की पर्येष्टि में दौड़ता-धूपता है । वह भोगों की प्राप्ति के लिये सब ओर प्रधावित होता है (५.४०) [अथवा 'उपादान' चतुर्विध क्लेश है (५.३८) । उस अवस्था को 'उपादान 'कहते हैं जिसमें इस चतुर्विध क्लेश का समूदाबार होता है] इस प्रकार प्रवावित होकर स भविष्यभवफलं कुरुते कर्म तद्भवः । प्रतिसन्धिः पुनर्जातिर्जरामरणमादिदः ॥२४॥ २४ए-वी. वह कर्म करता है जिसका फल अनागत-भव है : यह भव है । [भव अर्थात् कर्म' क्योंकि उसके कारण भव होता है , भवत्यनेन ] । [व्या २८५.३१] . 'चक्षुराद्यायतनोत्पत्तिकाले कायमनआयतनयोर्व्यवस्थापनात् व्या २८५.३] शुआन-चाट : "किन्तु उस काल का विचार है जव पडायतन परिपूर्ण होते हैं।"