पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३१४

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का, यथा उस सत्र में जिसका वचन है कि "जो श्रमण-ब्राह्मण धर्मों के स्वभाव को ३०४ अभिधमंकोश कर्म-क्लेशप्रत्ययवश उत्पत्ति; उत्पत्तिवश कर्म-क्लेश; कर्म-क्लेशप्रत्ययवश उत्पत्ति ; अतः भव-चक्र अनादि है । यदि आदि हो तो आदि का अहेतुकत्व मानना होगा और यदि किसी [६०] एक धर्म की उत्पत्ति अहेतुक होती है तो सब धर्मो की उत्पत्ति अहेतुक होगी। किन्तु देश और काल के प्रतिनियम से यह देखा जाता है कि बीज अंकुर का उत्पाद करता है, अग्नि पाकज का उत्पाद करती है । अतः कोई प्रादुर्भाव निर्हेतुक नहीं है । दूसरी ओर नित्यकारणास्तित्ववाद का प्रतिषेध हम ऊपर (२.६५) कर चुके हैं। अतः भवचक्र अनादि है। किन्तु यदि हेतु-प्रत्यय का विनाश हो तो हेतु-प्रत्यय से अभिनिर्वृत्त उत्पत्ति नहीं होगी यथा बीज के दग्ध होने से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती। जैसा हमने देखा है यह स्कन्ध-सन्तति तीन भवों में वृद्धि को प्राप्त होती है। स प्रतीत्यसमुत्पादो द्वादशाङ्गस्त्रिकाण्डकः । पूर्वापरान्तयो द्वे मध्येऽष्टौ परिपूरिणः ॥२०॥ २०. यह प्रतीत्यसमुत्पाद है जिसके बारह अंग और तीन काण्ड हैं। पूर्व काण्ड के दो, अपरान्त के दो और मध्य के आठ अंग है, कम से कम यदि हम उस सन्तति का विचार करें जो सर्वाग है।' [६१] वारह अंग यह हैं-अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नामरूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति, जरामरण। १ स प्रतीत्यसमुत्पादो द्वादशाङ्गस्त्रिकाण्डकः । पूर्वापरान्तयो T मध्येऽण्टौ परिपूरिणः॥ वसुबन्धु कारिका २०-२४ में आवस्थिक प्रतीत्यसमुत्पाद (२५ ए) (अर्थात् सन्तान का वारह उत्तरोत्तर दशाओं में (अवस्याओं में) अवधारण) का निर्देश करते हैं। तीन काण्ड' और तीन वर्म के बाद पर जो दो शास्त्रकारों को सामान्य है प्रतीत्यसमुत्पाद पर दो टिप्पणियाँ देखिये (कांग्रेस आव अलजीरिया, १९३५); श्वे ज्ञान औंग कमेडियम २५९; थियरी आव द्वैल्व कालेज, गांड, १९१३, पृ० ३४-३८, संस्कृत ग्रन्थ ज्ञानप्रस्थानशास्त्र है। संबभद्र (न्यायानुसार) अवस्थापित करते हैं कि हेतु-फल-सम्बन्ध-व्यवस्था आध्यात्मिक और बाहा दोनों होती है--एक ओर कललादि, दूसरी ओर बीजादि--और इसी को प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं (शालिस्तम्बसूत्र, थियरी आव दुबेल्ब कालेज, पृ. ७३ से तुलना कीजिये । अतः प्रतीत्यसमुत्पाद केवल बारह अंग नहीं है। हम कैसे जानते हैं ? प्रकरण, नाचे, पृ.६७पंक्तिमा शास्त्र कहता है : प्रतीत्यसमुत्पाद क्या है ?--सर्व संस्कृत धर्म।" पुनः सूत्र को ही सूचनायें भिन्न हैं। कभी इन्हें द्वादश भवांग कहते हैं। यथा परमार्थशून्यतासूत्रादि में; कभी ग्यारह का निर्देश है, यथा चे-च-किड [ज्ञानवस्तुसूत्र - संयुत्त, २.५६] आदि में कभी दस का निर्देश है, यथा नगरोपमादिसूत्र में दिव्य, ३४०]; कभी नौ का निर्देश है, यथा महानिदानपर्यायसूत्र में कभी आठ हाल २८१, पिजिलुस्की, जे. एएस. १९२०, २.३२६]--सूत्रों का बाद शास्त्रों यथाभूत नहीं जानते हैं....." यह भेद हैं। अन्य भेदों के लिये सेना, मेलांग के बाद से क्यों भिन्न है ? शास्त्रों का उपदेश धर्म-स्वभाव के अनुसार है। सूत्र शास्त्र से