पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३०२

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२९२ अभिधर्मकोश ! बहिर्गत होती है और निर्वाण तथा दाहपर्यन्त सवस्त्र रहती है । जिनमें अपत्राप्य का अभाव है ऐसे कामधातु के अन्य अन्तराभव नग्न होते हैं। यह पूर्वकालभव क्या है जिसको सम्बन्ध में हमने यह कहा है कि अन्तराभव इसके सदृश है ? १३ सी-डी. वह भरण के पूर्व और उपपत्ति-क्षण के पर होता है। भव, सत्त्व, पंचस्कन्ध । यह क्रम है---अन्तराभव, दो गतियों के अन्तराल का पंचस्कन्ध ; उपपत्तिभव, प्रतिसन्धि-क्षण के (३ . ३८ और पृ. १४), गतिप्रवेश-क्षण के, स्कन्ध; पूर्वकालभव, पर क्षणों के सर्व स्कन्ध यावत् मरण-भव । मरण-भव गति का अन्त्य क्षण है जिसके अनन्तर अपूर्व अन्तराभव होगा।' [४६] जब आरूप्यधातु का उल्लेख हो तब अन्तराभव को वर्जित कीजिये । हम अन्तराभव का पुनः वर्णन करते हैं:- सजातिशुद्धदिव्याक्षिदृश्यः कर्मद्धिवेगवान् । सकलाक्षोऽप्रतिपवाननिवर्त्यः स गन्धभुक् ॥१४॥ १४ ए-बी. वह समानजातीय अन्तराभव से और सुविशुद्ध दिव्यचक्षु से देखा जाता है।' वह देवादि सजातीय अन्तराभव से देखा जाता है । वह सुविशुद्ध दिव्यचक्षु से भी देखा जाता है अर्थात् उस दिव्यचक्षु से जो अभिजामय (७. ५५ डी) है क्योंकि वह चक्षु सुविशुद्ध है।' वह 'प्राकृतिक' या 'उपपत्ति-प्रतिलम्भिक' दिव्यचक्षु से, यथा देवों के दिव्यचक्षु से, नहीं देखा जाता। अन्य आचार्यों के अनुसार देवान्तराभविक सब अन्तराभवों को देखता है। मनुष्य-प्रेत-तिर्यक- नारक अन्तराभविक पूर्व-पूर्व को अपास्त कर शेष को देखता है।' भिक्षुणी_dkar mo, sien-pe (मत्स्य+भेड़), शुआन-चाङ के अनुसार परमार्थ : शु-को-लो-अवदानशतका, २.१५ (७३) । परमार्थ मूल को विस्तृत करते हैं। यह अनुवाद उन्हीं के अनुसार है । शुआन्-चार "लोक से लोकान्तर में वह स्वयंजात वस्त्रों से विभूषित होती है जो कभी उसके शरीर का त्याग नहीं करते और जो समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं यहाँ तक कि अन्त में उसका निर्वाण होता है और सबस्त्र-काय प्रज्वलित होता है। शाणवास की कथासे तुलना कीजिये, शुआन-चाङ, जुलिअन, १.३९--- प्रिनिलुस्की, फ्यूनरे, १११ में यह उद्धृत हूँ; नागसेन को कथा से तुलना कीजिये, देमीएविल, मिलिन्द 26] पालि ग्रन्थों (थेरीगाया, ५४, संयुत्त, १.५१२) में इसके सदृश कुछ नहीं है। स पुनर्मरणात्पूर्व उपपत्तिक्षणात्परः। इन चार भवों का उल्लेख महाव्युत्पत्ति, २४५, १२७१ में है। इस गणना में मरण-भव की शीर्ष स्थान है। सजातिशुद्धदिव्याक्षिदृश्यः व्याख्या--सुविशुद्धम् इत्येकादशदिव्यचक्षुरपक्षालजितम्। [व्या २७९ : अनुसार यह ग्यारह अपक्षाल इस प्रकार है : विचिकित्सा, अमनसिकार, कायदौष्ठुल्य, स्त्यान मिद्ध, औद्धत्य, अत्यारन्यवीर्य, आदिवल्य, छम्बितत्व नानात्वसंज्ञा, अभिजल्प, अतिध्या- यित्वम्, नेयेषु। विभाषा, ७०,१३-श्या अन्तराभव एक दूसरे को देखते हैं ? हॉ---कौन किसको देखता २ ३ १ २ के