पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२९३

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २८३' '. श्रीहिसन्तान को जब एक दूरवर्ती नामान्तर में ले जाते हैं तब वह अन्तराल के ग्रामों में से होकर उस नामान्तर में आनीत होता है, इसी प्रकार चित्त-सन्तति मरण-(मरणभव) देश से अपेत हो कर अविच्छेदेन (अन्तराभव) उद्भूत हो उत्पत्ति (उपपत्तिभव) ग्रहण करती है। किन्तु इसमें यह दोष दिखायेंगे कि सन्तानवर्ती प्रतिविम्ब विम्ब से विच्छिन्न होकर भी आदर्श, उदक आदि में उत्पद्यमान होता है । अतः मरण-भव-देश और उपपत्ति-भव-देश के अन्तराल में अविच्छिन्नसन्तानवतिरूपपूर्वक उपपत्ति-भव-रूप नहीं होता। ११ सी-डी. प्रतिबिम्ब का अस्तित्व असिद्ध है। यदि सिद्ध हो तब भी प्रतिविम्ब में साम्य नहीं है। अतः प्रतिबिम्ब का उदाहरण ठीक नहीं है । प्रतिविम्ब से वह एक द्रव्य का ग्रहण करते हैं जो वर्ण-विशेष है। प्रतिबिम्ब नाम का कोई धर्मान्तर नहीं है। यह प्रतिसावन साधु नहीं हैं। यदि प्रतिविम्ब का अस्तित्व सिद्ध हो तव भी असाम्य होने से यह अनिदर्शन है। कैसे यह असिद्ध है? सहकत्र याभावाद् असन्तानाद् द्वयोदयात् । कण्ठोक्तश्चास्ति गन्धर्वः पञ्चोक्तेर्गतिसूत्रतः॥१२॥ १२ ए. क्योंकि दो वस्तुओं का एकदेश में सहभाव नहीं होता। ए. एक ही देश में अर्थात् आदर्श में, पार्श्व-स्थित पुद्गल आदर्श-रूप को, जो उपादाय रूप है, देखता है; अभिमुख अवस्थित पुद्गल वहाँ अपना प्रतिविम्ब देखता है। यह प्रतिबिम्ब एक 'वर्ण-विशेष', उपादाय-रूप होगा। हम यह नहीं मान सकते कि दो उपादाय-रूप का एक ही देश में सहभाव होता है, क्योंकि उनके आश्रय-भूत भिन्न हैं। (४ , अनुवाद पृ. २६,२९ देखिये)। (३५) बी. दो पुरुप जो घटादि किसी एक रूप को देखते हैं, उनका सहदर्शन होता है। एक ही तटाक, जल-देश की दो भिन्न दिशाओं में व्यवस्थित दो पुम्प स्वाभिमुख देश में स्थित पों के प्रतिविम्ब को देखते हैं। एक ही प्रतिविम्ब की उपलब्धि एक ही काल में दोनों को नहीं होती। सी. लोक में छाया और आतप का एक साथ एकत्रभाव नहीं देखा जाता। किन्तु यदि कोई सूर्य से प्रकाशित तटाक के तट के समीप स्थित मण्डप की छाया में आदर्श स्थापित करता है तो 3 व्याख्या कहती है : अत्राचार्य गुगमतिः सह शिष्यणाचार्यवसुमित्रेण स्वनिकायानुराग- भावितमतियाख्यानव्यापारमपास्य प्रत्यवस्थानपर एव वर्तते। वयमिह शास्त्रार्थविवरणं प्रत्याद्रियामहे न तद्दूषणं निःसारत्वाद् बहुवक्तव्यभयाच्च । [व्या २६७.२५] यशोमित्र व्याख्या के आरम्भ के श्लोकों में कहते हैं कि गुणमति, वसुमित्र आदि व्याख्याकारों को "जो पदार्थ-विवृति सुष्छु है वह मुझको अभिगत है।" १.१ को व्याख्या करते हुए 'तस्म नमस्कृत्य का जो व्याख्यान गुणमति और उनके शिष्य वसुमित्र ने किया है उसको वह अयुक्त बताते हैं (पृ.७, पेट्रोग्राड संस्करण) । इस व्याख्या से यह ज्ञात होता है कि गुणमति और वसुमित्र किसी दूसरे निकाय के हैं। और विवरण नहीं हैं। प्रतिविम्बमसिद्धत्वाद् असाम्याच्चानिदर्शनम् ॥ [व्याख्या २६८.७] सहकत्र द्वयाभावात् [च्या २६८.११] 3 १