पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८९

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तुतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २७९ ९ बी-सी. नारक, अन्तराभव और देव उपपादुक हैं।' यह तीन प्रकार के सत्त्व एकान्ततः उपपादुक योनि के हैं। ९ डी. प्रेत भी जरायुज हैं। यह दो प्रकार के हैं, उपपादुक और जरायुज । इनका जरायुजत्व प्रेती-मौद्गल्यायन संवाद से सिद्ध होता है : मैं रात्रि में पाँच बच्चे देती हूँ और पाच दिन में में उनको खाती हूँ और तिस पर भी मुझको तृप्ति नहीं होती !" श्रेष्ठ योनि कौन है? उपपादुक योनि। [३०] किन्तु चरमभविक बोधिसत्त्व को उपपत्तिवशित्व प्राप्त होता है। वह जरायुजो- पपत्ति को क्यों पसन्द करते (३.१७ देखिये)२ इस प्रश्न के दो उत्तर हैं--१. बोधिसत्त्व इसमें बहु उपकार देखते हैं। एक ही वंश का होने के कारण शाक्यों का महावंश सद्धर्म में प्रवेश करता है । उनको चक्रवर्तियों के कुल का समझ कर मनुष्य उनके प्रति महान् आदर प्रदर्शित करते हैं । यह देखकर कि मनुष्य होकर इन्होंने यह सिद्धि प्राप्त की है मनुष्यों का उत्साह बढ़ता है। यदि बोधिसत्त्व की जरायुजोपपत्तिन होती तो लोगों को १ २ ३ नरका उपपादुकाः । अन्तराभवदेवाश्च मज्झिम, १.७३, विभंग, ४१६ से तुलना कीजिये। प्रेता अपि जरायुजाः यह परिच्छेद विभाषा, १२०, १२ और कारणप्रज्ञाप्ति, १५ के अनुसार है. (धुद्धिस्ट कास्मालजी पू. ३४५-६)।--एक बात में वसुबन्धु इससे व्यावृत्त होते है : "प्रेत केवल उपपादुक हैं। कुछ आचार्य कहते है कि यह जरायुज भी होते हैं। एक प्रेती आयुष्मान् मौद्गल्यायन ले कहती है.. ।" व्याख्या कहती है कि प्रेती के संवाद से यह प्रतीत होता है कि उसके बच्चे उपपादुक हैं। यदि वह जरायुज होते तो माता उनको खाकर तृप्त होती। किन्तु इतने बच्चों का सकृत् जन्म विरुद्ध नहीं है क्योंकि इतने ही काल में प्रेत के बच्चों का आत्मभाव परिपूरित हो जाता है और माता की अभिप्रवृद्ध निघांसा के दोष से इतने भोजन से भी उसकी तृप्ति नहीं होती। पेत्तवत्थु, १.६ : कालेन पंच पुत्तानि सायं पंच पुनापरे । विजयित्वान खादामि ते पि न होन्ति मे अलम् ॥ व्याख्या में संस्कृत गाथा के कियदंश पाये जाते हैं : [अहम्] रात्रौ पञ्च सुतान् दिवा पञ्च तथापरान् । जनयित्वा [पि खादामि] नास्ति तृप्तिस्तथापि में ॥ [व्याल्या २६५ . ३०] सिंहल में एक निझामतहिकपेत हैं जो केवल उपपादुक हैं और अन्य प्रेत हैं जो चार प्रकार के हैं। रोज डेविड्स-स्टीड में 'पेत' शब्द देखिये । । महान्युत्पत्ति, २७ के अनुसार पाँचवीं बोधिसत्त्ववशिता; मध्यमकावतार, ३४७ में इनका लक्षण दिया है। महावस्तु, १.१४५ में "बुद्ध अपने विशेष गुणों से उत्पन्न होते हैं और उनकी उत्पत्ति उप- पादुक है"; १.१५४, "राहुल साक्षात् तुषितलोक से अवतीर्ण हो अपनी माता को फुक्षि में प्रवेश करते हैं। उनका जन्म अद्भुत है किन्तु चक्रवतियों के समान औपपादुक उपपत्ति महीं है।" इन ववनों पर और महावस्तु के अन्य लोकोत्तरवादी वचनों पर वार्ष, जे०३० सावां, अगस्त, १८९९ देखिये। ललित, लेफ़मान, ८८ से तुलना कीजिये।