पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२८१

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २७४ १०५) पूर्व निवास की स्मृति के लिये द्वितीय व्यान आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उन्होंने द्वितीय ध्यान का पुनः लाभ नहीं किया है क्योंकि महाब्रह्मा को निर्माता अवधारित करने की शीलवत- परामर्श दृष्टि में वह पतित हैं। हम यह नहीं कह सकते कि यह मिथ्यादृष्टि द्वितीयध्यानभूमिक है क्योंकि किसी भूमि की मिथ्यादृष्टि (या कोई क्लेश) अवरभूमि को आलम्बन नहीं बनाती। एक दूसरे मत के अनुसार ब्रह्मालोक में उत्पन्न होने से पूर्व जब वह अन्तराभवस्थ थे तव उन्होंने ब्रह्मा को देखा था। यह पक्ष भी नहीं घटता। यह आक्षेर होगा कि अन्तराभव में दीर्घकाल तक अवस्थान करना सम्भव नहीं है क्योंकि इस लोक में उपपत्ति-प्रतिबन्ध का [१९] अभाव है। अतः उनकी यह बुद्धि कैसे हो सकती है कि “हमने इस दीर्घायु सत्त्व को दीर्घकाल तक अवस्थान करते देखा है।" अतः यह तृतीय मत है कि "ब्रह्मालोक में ही यह देव ब्रह्मा के पूर्व वृत्तान्त का स्मरण करते हैं। जिस काल में वह उपपन्न हुए उस समय उन्होंने उस पूर्वोत्पन्न को दीर्घकाल तक अवस्थान करते हुए देखा है। देखकर पश्चात् उनकी यह बुद्धि होती है कि “हमने इस सत्त्व को देखा है ..."; और वह उपपत्तिप्रतिलम्भिक प्रथम-ध्यानभूमिक स्मृति से इस सत्त्व की चित्त-प्रणिधि को जानते हैं। अथवा ब्रह्मा से उन्होंने सुना है। ३. "एक काय किन्तु अनेक संज्ञा के रूपी सत्त्व अर्थात् आभास्वर देव-यह तृतीय विज्ञान- स्थिति है।" द्वितीय व्यान के अख़तम देवों का अर्थात् आभास्वरों का निर्देश करके सूत्र परीत्ताभ और अप्रमाणाभ देवों को भी निदिप्ट करता है। यदि अन्यया होता तो यह दो प्रकार के देव किस विनानस्थिति के होते? वर्ण, लिंग, संस्थान की अनेकता नहीं है। अतः इन देवों का एक काय है। इनमें सुस्त्र, अदुःखासुख की संज्ञा होती है। अतः इनकी संज्ञा का नानात्व है। वास्तव में ऐसा कहा गया है (विभापा, ३८, ६)—यद्यपि हमारे अनुसार (किल) यह यथार्थ नहीं है--कि यह देव मौल द्वितीय ध्यान की सौमनस्य वेदना से परिजिन्न हो कर इस ध्यान के सामन्तक में प्रवेश करते है और वहाँ उपेक्षा वेदना (८.२२) का संमुखीभाव करते हैं। इन ३ १ अन्तराभव का अवस्यान तभी दीर्घ हो सकता है जब उसकी प्रतिसन्धि कामधातु में होती है ३.१४ डी। याख्या के अनुसार-भाष्य इस प्रकार हैं: तस्मात् तत्रस्या एव तस्य पूर्ववृत्तान्तं समनुस्मरन्तः । दीर्वमन्नानं तिष्ठन्तं दृष्टवन्तः । दृष्ट्वा च पश्चावद्राधमैतेयां बभूव । [व्या २६१.२५] परमार्थ इस प्रकार अर्थ करते हैं : "ब्रह्मा के लोक में देव पूर्व वृत्तान्त का स्मरण करते हैं। उन्होंने दोर्यायु ब्रह्मा को दीर्घकाल तक अवस्थान करते हुए पहले हो - ब्रह्मालोफ में पूर्वजन्म में देखा है। पश्चात् वह उसको पुनः देखते हैं और इसलिये कहते हैं.. शुआन्-वाङ : "देव इस सत्व के पूर्व वृत्तान्त का इसी लोक में स्मरण करते हैं। उन्होंने पूर्व उसको देखा है....।" ते हि मौल्यां भूमो सुर्खेन्द्रियपरिखिन्नाः सामन्तकोपेक्षेन्द्रियं सम्मुखीकुर्वन्ति [ध्या २६१ ३४] । २