पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२७७

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश २६७ करते हैं: "शारिपुत्र कहते हैं-भदन्त, जब नारक आस्रवों का समुदाचार होता है तव पुद्गल उन कर्मों को करता है, उन कर्मों को उपचित करता है, जिनका विपाक नरक में होता है। काय, वाक् और मन के इन वंक, दोप, कपाय कर्मों का (४.५९) विपाक, नारक रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान हैं। जब यह विपाक निर्वृत्त होता है (निवृत्ते विपाके) तब नारक इस संख्या को प्राप्त होता है। भदन्त, इन पांच धर्मों के व्यतिरिक्त किसी नारक सत्त्व का भव नहीं है।" [इसका यह अर्थ है कि इन पाँच "विपाकभूत" धर्मों के व्यतिरिक्त नारक सत्त्व का अस्तित्व नहीं है। अतः यह अनिवृताव्याकृत हैं।] [१४] किन्तु इग वाद से प्रकरणग्रन्थ (३, ८) के निम्न वचन का विरोध है। इसका परिहार बताना चाहिये : "गतियों में सब अनुगय अनुगयन करते हैं, प्रतिष्ठा-लाभ और पुष्टि- लाभ करते है। इसका यह उत्तर देते है कि इस वचन से गतियों का मन्धि-चित्त' अभि. प्रेत है जो पाँच प्रकार के होते हैं और जो दुःखादि-दर्शन-प्रहातव्य या भावना-प्रहातव्य है। अतः सब अनुशय वहाँ अनुशयन करते हैं। यथा 'ग्रामोपविचार' (ग्रामपरिमामन्तक) के लिये 'ग्राम' का ग्रहण होता है, उसी प्रकार प्रकरण ऐसा कह सकता है। एक दूसरे मत के अनुसार गतियाँ भी कुशल और क्लिष्ट हैं । वास्तव में इस मन के अनुयायी कहते हैं कि सप्तभवसूत्र (पृ. १३, टिप्पणी २) के आधार पर जो युक्ति दी जाती है वह युक्त नहीं है। कर्मभव पांच गतियों से पृथक् निर्दिष्ट है किन्तु इससे यह नही सिद्ध होता कि यह उनसे बहिष्कृत है। पाँच कपायों में क्लेशकपाय और दृष्टिकपाय (३.९३ ए) पृषक उक्त हैं : क्या कोई कहेगा कि दृष्टि क्लेग नहीं है? अतः कर्मभव गतियों में संगृहीन है। किन्तु इसका पृथक् वचन गति-हेतु के तापनार्थ है। सर्वास्तिवादिन्-~-इम युक्ति में तो अन्त गभव में भी यह प्रसंग होगा। अन्नराभव भी गति होगी। १ गतिषु सर्वेऽनुशया अनुशेरते [व्या २६० . २]--यदि गति अनिवृताव्यात धर्म है तो पयोंकि यह धर्म भावना-प्रहातव्य है, प्रकरण को इस प्रकार कहना चाहिये : "गतियों में भावना- प्रहातव्य और सर्वत्रग अनुशय अनुशयन करते हैं, प्रतिष्ठालाभ और पुष्टिलाभ करते हैं। (१.४० सी और कोशस्थान ५) सर्व अनुशय ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि उनमें ऐसे अनुशय हैं जो अनिवृताव्याकृत धर्मों में अनुशयन नहीं करते। यह विभाया, ७२,२ का व्याख्यान है। २ सन्धिचित्त-प्रतिसन्धिचित्त = कोश, ३.१३ सी, ३८ का उपपत्तिभव । प्रतिसन्धि = विचाण, पटिसम्भिदामग्ग १. पृ. ५२, प्रतिसन्धिचित्त और विज्ञाण, विसुद्धि ५४८, ६५९ ३.३८,२.१४ के अनुसार।

  • परमार्थ व्यावृत्त करते है : “आप कहते है कि यहां कर्मभव फा निर्देश इसलिये है क्योंकि यह

गतियों का हेतु है। स्कन्धों का निर्देश युक्त होगा क्योंकि वह भी गतियों का हेतु है।" यह कहा जायगा फि अन्तराभव एक गति है यद्यपि इसका पयक बदन गति-गमन को शापित करने के लिये है।