पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२६९

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तृतीय कोशस्णन : लोकनिर्देश २५९ [३] किन्तु काश्मीरक कहते हैं कि रूपधातु में केवल १६ स्थान हैं।' देते हैं। इसलिय कहते हैं क्योंकि ब्रह्मा उनके अग्र (पुर एषा) आहित है (घीयते) । महाब्रह्माइस- लिये कहते हैं क्योंकि आयु, वर्ण आदि विशेषों से यह महान् है (मआयुर्वर्णादिभिविशेवमहान् ब्रह्मा एषाम्) [व्या २५५.६] । व्यास्या देवों की संज्ञाओं का व्याख्यान स्पष्ट भाषा में करती हैं (कास्मालजी बुद्धोक, पृ० ११९) । संघभद्र इससे सहमत हैं। ३.६४ में सब देवों का विवरण है। विभाषा, ९८.१५ ए. पालिग्रन्य- रूपयातु या ब्रह्मालोक, अपर पृष्ठ १, टिप्पणी १) में १६ स्थान हैं : १-९, प्रथम तीन ध्यानों में से प्रत्येक के लिये तीन स्थान; १०-११, चतुर्थ ध्यान के लिये बेहप्फल और असञ्जासत; १२-१६, अनागामिन् के ५ शुद्धावास। पाठान्तर के लिये मज्झिम, १.३२९, ३.१४७ आदि देखिये। बो. "सर्वास्तिवादियों का यथार्य मत":--१६ स्थान । यह प्रथम ध्यान को केवल दो स्थान सो. पाश्चात्य (गान्धार के वैभाषिक, पाश्चात्य, बहिर्देशक) : १७ स्थान। ये प्रथम ध्यान को तीन स्थान देते हैं (महाब्रह्माओं के लिये एक विशेष स्थान)। डी.अन्य वहिर्देशक (कोश, २.४१ डी, पु०९९) : १७ स्थान । ये प्रथम ध्यान को दो स्थान देते हैं किन्तु चतुर्थ ध्यान में असंज्ञिसत्त्वों को एक विशेष स्थान देते हैं। ई. १८ स्थान । प्रथम ध्यान में तीन स्थान (महाब्रह्माओं के लिये विशेष स्थान) और असजि- तत्वों के लिये एक विशेष स्थान। यह श्रीलाभ का मत है । श्री लो तो, वाटर्स, १.३५५, सौत्रान्तिक विभाषा शास्त्र का रचयिता)। ऐसा पू-स्वाङ, और फा--पाओ कहते हैं। ये संघभद्र का उल्लेख करते हैं, जिनके अनुसार "स्यविर १८ स्थान मानते हैं। यह स्थिरमति या सारमति का मत है (नजियो ११७८, महायान) एफ योगाचार भी १८ को संख्या स्वीकार करते हैं किन्तु वह असंज्ञिसत्त्वों को बृहत्फलों के लोक में व्यवस्थापित करते हैं और महेश्वर देवों को (महाव्युत्पत्ति, १६२, ७ के महा- महेश्वरायतन ले तुलना कीजिये) मानने से इनकी १८ को संख्या पूरी होती है। ब्वान हुई और अन्य ब्याख्याकार कहते हैं कि स्थविर निकाय को १८ स्थान मान्य हैं। यह उनको भूल है । वह संघभद्र के "स्थविर" का अशुद्ध अर्थ करते हैं (ए) क्योंकि एक स्थविर निकाय है किन्तु से-जैन, पू-क्वाड और फा-पाओ कहते हैं कि संघभद्र का "स्थविर" श्रीलाभ है ], (बी) क्योंकि वह नहीं जानते कि १८ सौत्रान्तिक श्रीलाभ की संख्या है जब कि सौत्रान्तिक सिद्धान्त में १७ संस्था व्यवस्थापित है। विभाषा के अनुसार १७ स्थानों का सत पाश्चात्यों का है। इनसे गान्वार के आचार्य अभिप्रेत हैं। इन आचार्यों में सौत्रान्तिक भी हैं किन्तु बहुत से सर्वास्तिवादी हैं। विभाषा पाश्चात्य से सर्वास्तिवावी निकाय के, न कि सौत्रान्तिक निकाय के एक भिन्न मत को सूचिरा करती है। इसीलिये संधभद्र केवल इतना कहते हैं कि "दूसरे (अपरे) कहते हैं [कि स्थानों की संख्या १७ हैं........।" वह यह नहीं कहते कि "एक अन्य निकाय. सा एकी सामालिक रूप से कहते हैं ".-१६ स्थान। यह सर्वास्तिवादियों का ययार्य मत है।१७ स्थान : (ए) पाश्चात्य (महाबला का एक विशेष स्थान), (बो) अन्य आचार्य (असंक्षियों का एक विशेषयान)। १८ स्थान (महाब्रह्मा और असंशियों के स्थानों को पूषक पृयक मानकर) : स्थविर = (ए) श्रीलदर-यह २० निकायों में अन्तर्भूत स्थविर नहीं है। इन्हें मूल सौत्रान्तिक भी कहते हैं। (बी) २० निकायों के अन्तर्गत स्थविर जिन्हें मूलस्थविर कहते हैं। इसके अतिरिक्त स्थिरमति (सारमति) और योगाचार]।"