पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२४

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प्रथम कोशस्थान : धातुनिर्देश '९ वहाँ प्रतिष्ठा-लाभ नहीं करते, वहाँ अनुशयन नहीं करते। इसका व्याख्यान पाँचवें कोशस्थान (अनुशयनिर्देश) में करेंगे। अनास्त्रवा मार्गसत्यं त्रिविधं चाप्यसंस्कृतम् । आकाशं द्वौ निरोधौ च तत्राकाशमनावृतिः ॥५॥ अनास्रव धर्म कौन हैं? ५ ए-बी-~-मार्गसत्य और तीन असंस्कृत अनास्रव हैं।' तीन असंस्कृत कौन हैं ? [८] ५ सी-आकाश और दो निरोध ।। दो निरोध प्रतिसंख्यानिरोध और अप्रतिसंख्यानिरोध है। तीन असंस्कृत और मार्ग-सत्य यह अनास्रव धर्म हैं क्योंकि यहाँ आस्रव प्रतिष्ठा-लाभ नहीं करते। ५ डो—आकाश वह है "जो आवृत नहीं करता।"२ आकाश अनावरण-स्वभाव है; यहाँ रूप को अबाध गति है। यह रूप से आवृत भी नहीं होता (आवियते) क्योंकि आकाश रूप से अपगत नहीं होता। ३ १ २ अनास्रवा मार्गसत्यं त्रिविधं चाप्यसंस्कृतम्। व्याख्या १३.३०] सत्यदर्शनात्मक और सत्यभावनात्मक धर्मों का समुदाय मार्गसत्य है। (६.२५ डो,७.३ वी) असंस्कृतों पर १.४८ बी, २.५५ सी-डी और भूमिका देखिए। कुछ दार्शनिक यथा वात्सोपुत्रीय कहते हैं कि केवल एक असंस्कृत है अर्थात् निर्वाण । वैशे- षिक परमाणु आदि अनेक असंस्कृत मानते हैं व्याख्या १५.२] । एक है जो तीन असंस्कृत मानते हैं । दूसरे शून्यता को जो 'तथतालक्षण' है (मध्यमक, ७.३३, पृ० १७६) असंस्कृत मानते हैं। वैसिलोफ़, पृ०२६४, २८२- कथावत्यु, २.९, ६.१-६, १९.५; भावविवेक, नजिओ १२३७, २, पृ० २७५, कालम ३. १ आकाशं द्वौ निरोधौ च । दो निरोधों पर १.६, २.५५ सी और ५ निरोधों पर १.२० ए-बी देखिए। तत्राकाशमनावृतिः। [व्याख्या १५.६] आकाश और आकाशधातु के भेद पर १.२८ देखिए । आकाश नामक असंस्कृत के अभाव पर (सौत्रान्तिकवाद) २.५५ सी-डी देखिए-कथावत्यु, ६.६-७. आकाश पर 'डाकुमेन्टस आफ़ अभिधर्म' बी० ई० एफ० ई० ओ० १९३०, २.२७९, ३.१३९, परिशिष्ट देखिए। आकाश और अन्य असंस्कृतों पर माध्यमिक मत सौत्रान्तिकों के मत से मिलता है। आर्य- देव, शतक, ९.३ में (मध्यमकवृत्ति, ५०५, चतुःशतिका, २०२, एशियाटिक सोसा० आफ बंगाल, ३ पृ.४८३, १९१४) इसका व्याख्यान करते हैं: “जहां रूपान्तर का अभाव है,जहां रूपी धर्मों की उत्पत्ति में कोई प्रतिबन्ध नहीं है । रूपाभाव मात्र के लिए आकाश का व्यवहार होता है क्योंकि भाव वहां अत्यन्त रूप से प्रकाशित होते हैं (भृशमस्यान्तः काशन्ते भावा:- व्याख्या १५.८)। वैभाषिक अभिधर्मशास्त्र में आकाश में वस्तुत्व आरोपित करते हैं। वह यह नहीं देखते कि आगम अवस्तुसत्, अकिंचन के (अवस्तुसतोऽकिंचनस्य) नामधेय मात्र का उपदेश देता है। 3