पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३४

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द्वितीय कोशस्थान : फल २२१ 1 1 . . क्या केवल संप्रयुक्तकहेतु और सहभूहेतु ही ऐसे हेतु हैं जिनका पुरुपकार फल है ? एक मत के अनुसार विपाकहेतु से अन्यत्र अन्य हेतुओं का भी यह फल होता है। वास्तव में यह फल सहोत्पन्न है या समनन्तरोत्पन्न है। विपाकफल ऐसा नहीं है। अन्य आचार्यों के अनु- सार विपाकहेतु का एक विप्रकृष्ट पुरुषकारफल भी होता है, यथा श्रमिक द्वारा अजित फल । [अतः एका धर्म (१) निष्यन्दफल है क्योंकि यह स्वहेतु के सदृश उत्पन्न होता है; (२) पुरुषकारफल है क्योंकि यह स्वहेतुवल से उत्पन्न होता है, (३) अधिपतिफल है क्योंकि यह स्वहेतु के 'अनावरणभाव' के कारण उत्पन्न होता है ।] विपाकोऽन्याकृतो धर्मः सत्वाख्यो व्याकृतोद्भवः। निष्यन्दो हेतुसदृशो विसंयोगः क्षयो धिया ॥५७॥ भिन्न फलों के क्या लक्षण हैं ? ५७ ए-वी. विपाक एक अव्याकृत धर्म है; यह सत्वाख्य है; यह व्याकृत से उत्तरकाल में उत्पन्न होता है । विपाक अनिवृताव्याकृत धर्म है । [२९०] अनिवृताव्याकृत धर्मों में कुछ सत्वाख्य होते हैं, अन्य असत्वाख्य होते हैं । अतः आचार्य अवधारण करते हैं 'सत्वाख्य' अर्थात् सत्वसन्तानज । औपचयिक (आहारादि से निवृत्त, १.३७) और नैष्यन्दिक (स्वसदृश हेतु से प्रवृत्त, १.३७, २.५७ सी) धर्म सत्वाख्य हैं। अतः आचार्य अवधारण करते हैं 'व्याकृत कर्म से उत्तरकाल में संजात'। यह व्याकृत कर्म इसलिये कहलाता है क्योंकि यह विपाक का उत्पाद करता है । यह अकुशल और कुशल सास्रव (२.५४ सी-डौ) कर्म है। इस स्वभाव के कर्म से उत्तरकाल में, युगपत् या अनन्तर नहीं, जो फल होता है वह विपाकफल है ।' पर्वत, नदी आदि असत्वाख्य धर्मों को विपाकफल क्यों नहीं मानते ? क्या वह कुशल- अकुशल कर्म से उत्पन्न नहीं है ? असत्वाख्य धर्म स्वभाववश सामान्य हैं । सर्व लोक उनका परिभोग कर सकता है। किन्तु विपाकफल स्वभावतः स्वकीय है : जिस कर्म को निप्पत्ति मैने की है उसके विपाकफल का भोग दूसरा कभी नहीं करता। कर्म विपाकफल के अतिरिक्त t ! २ यह परमार्य में नहीं है। विपाकोऽव्याकृतो धर्मः सत्वात्यो व्याकृतोद्भवः । [व्या २२३.१४] । 'उद्भव' का 'उद्' उपसर्ग उत्तर कालाय है। समावि काय के महाभूतों के उपचय का उत्पाद करती है : यह महाभूत “औपचयिक" कहलाते हैं क्योंकि इनकी उत्पत्ति समाधि के साय (युगपत्) या अनन्तर होती है। यह विपाकज नहीं हैं।-यथा निर्माणचित्त (१.३७, ७.४८) अव्याकृत, सत्वास्य, व्याकृत कर्म (समाधि) से अभिनिवृत्त है किन्तु समाधि के अनन्तर उत्पन्न होने से यह विपाकज नहीं है। पुनः विपाकरुल सदा जनक कर्म का समान- भूमिक होता है।