पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२२३

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२१० अभिधर्मकोश आयतन विपाक होते हैं अर्थात् स्प्रष्टव्यायतन और धर्मायतन (जिसमें स्प्रष्टव्य के जात्यादि संगृहीत हैं)। जिस कम का विपाक कायायतन' (१.९ ए) है उसके अवश्य तीन आयतन' विपाक होते है---कायायतन, स्प्रष्टव्यायतन' (अर्थात् भूतचतुष्क जो कायायतन के आश्रय हैं), धर्मायतन (जिसमें जात्यादि संगृहीत है)। इसी प्रकार जिस कर्म का विपाक रूप, गन्ध या रसायतन है उसके अवश्य तीन आयतन विपाक होते हैं : स्प्रष्टव्यायतन और धर्मायतन-~-यथापूर्व और रूप, गन्ध और रसायतन में से अन्यतम यथा योग । जिस कर्म का विपाक चक्षु, श्रोत्र, घ्राण या जिह्वायतन है उसके अवश्य चार आयतन होते हैं : (१) चार इन्द्रियों में से एक, (२) कायायतन, (३) स्प्रष्टव्यायतन, (४) धर्मायतन । एक कर्म के ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११ आयतन विपाक होते हैं। वास्तव में कर्म दो प्रकार के हैं : एक जिनका फल विचित्र है, दूसरे जिनका फल अविचित्र है । बाह्य बीजवत् : पद्म, दाडिम, न्यग्नोध, यव, गोधूमादि। ५. एकाध्विक कर्म का त्रैयध्विक विपाक विपच्यमान होता है किन्तु विपर्यय नहीं होता क्योंकि फल हेतु से अतिन्यून नहीं होता (माभूद् अतिन्यून हेतोः फलम् -[व्या २१५. १६] । एकक्षणिक कर्म का विपाक बहुक्षणिक हो सकता है किन्तु उसी कारण से विपर्यय ठीक नहीं है (विभाषा, १९, १६) ! [२७५] कर्म के साथ विपाक विपच्यमान नहीं होता क्योंकि जिस क्षण में कर्म का अनु- ष्ठान होता है उस क्षण में विपाकफल का आस्वादन नहीं होता। कर्म के अनन्तर भी विपाक नहीं होता क्योंकि समनन्तर क्षण समनन्तरप्रत्यय (२.६३ बी) से आकृष्ट होता है : वास्तव में विपाकहेतु अपने फल के लिये प्रवाहापेक्ष है। इन ६ हेतुओं में से कोई एक हेतु होने के लिये धर्म को किस अध्व का होना चाहिये ? हमने अर्थतः इनका अध्व-नियम कहा है किन्तु कारिका में इसका निर्देश नहीं किया है : सर्वत्रगः सभागश्च द्वयध्वगौ व्यध्वगास्त्रयः । संस्कृतं सविसंयोगं फलं नासंस्कृतस्य ते ॥५५॥ ५५ ए-बी. सर्वत्रगहेतु और सभागहेतु दो अध्व के होते हैं; तीन हेतु त्र्यध्विक हैं ।' कभी १२ विपाक नहीं होते क्योंकि शब्दायतन अविपाक-स्वभाव है। (१.३७ बी-सी) पूर्वकृत कर्म का विपाक आरच होता है, प्रत्युत्पन्नक्षण में उसकी स्थिति होती है, अनागत में नह प्रवृत्त होता है। जापानी संपादक दीर्घकालीन कर्म के दृष्टान्तस्वरूप बोधिसत्वको वीरचर्या का उल्लेख करते हैं। न च कर्मणा सह विपाको विपच्यते । [व्या २१५.१७] [सर्वनगः सभागश्च द्वघध्वगौ] ध्यध्वगास्त्रयः । २.५९ से तुलना कीजिये। [व्या २१७.१४] २ 3 4 २