पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१६

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द्वितीय कोशस्थान : हेतु यदि जर्वभूमिक-मार्ग अवाभूमिक-मार्ग का सभागहेतु होता है तो यह मम या विशिष्ट मार्ग का हेतु कैसे हो सकता है ? [२६४] अबोभूमिक-नार्ग (१) इन्द्रियतः सम या विमिष्ट होता है क्योंकि सब भूमियों में इन्द्रिय मृदु या तीब्ण हो सकती है; (२) हेतुपत्रातः सम या विजिष्ट होता है। यद्यपि एक सन्तान में अनुक्रम ने श्रद्धानुसारिन् और धर्मानुसारिन् मार्ग का होना असंभव हं तथापि प्रथम प्रत्युत्पन्न या अतीत, द्वितीय अनागत का सभागहेतु है । प्रयोगजास्तयोरेब श्रुतचिन्तामयादिकाः । संप्रयुक्तकहेतुस्तु चित्तचैत्ताः सनाश्रयाः ॥५३॥ क्या सन और विशिष्ट फल का नियम केवल बनानव-धर्मों के लिये अर्थात् मार्ग-संगृहीत वर्मों के लिये है ? ५३ ए. प्रायोगिक वर्म सम और विशिष्ट इन्हीं दो के सभागहेतु होते हैं।' प्रयोगन लौकिक बर्म नम या त्रिगिष्ट धर्मों के सभागहेतु होते हैं, हीन बर्मों के नहीं। प्रयोगज धर्म कौन है ? ५३ बी. जो श्रुतमय, चिन्तामय आदि हैं। 'प्रयोगज बर्न उत्ति-प्रतिलम्भिक-वर्मों के प्रतिपक्ष हैं । यह गुण श्रुत अर्थात् बुद्धवचन, चिन्ता और भावना से निर्वृत्त होते हैं । [२६५] प्रायोगिक होने से यह विशिष्ट या सम के समागहेतु है, हीन के नहीं। कामावर श्रुतमय धर्म कामावघर श्रुतमय और चिन्तामय वर्मी के समागहेतु है, भावना- मय वर्मा के नहीं क्योंकि कामवातु में भावनामय वर्मों का अभाव होता है, क्योंकि कोई भी धर्म स्वातु के वर्मों का ही समागहेतु होता है । न्यावचर बृतमय धर्म ल्यावर श्रुतमय बौर भावनामय बर्मों के सनागहेतु हैं, चिन्ता- .. । यदि हम प्रयन १५ क्षणों का (दानमार्ग, ६.२७) विचार करें तो अयोभूमिक द्वितीय क्षण अनभूमिक प्रथम क्षण से विशिष्ट है क्योंकि इसके हेतु (१) प्रथम क्षण के हेतु हैं, (२) स्वहेतु है, एवमादि: भावनानार्ग के हेतु (१) दर्शनमार्ग के हेतु है, (२) स्वकीय हेतु हैं। अलमार्ग के हेतु (१) दान और भावनामार्ग के हेतु हैं; (२) स्वकीय हेतु हैं। पुनः भावनामार्ग और नक्षमार्ग में मार्ग अधिमात्र अबिमात्र, अविभाव-मध्य आदि ९ प्रकार के क्लेशों का बिनाता करता है । यह उत्तरोत्तर मृदु-मृव, मृदु-मव्य, मृदु-नबिमात्र, मध्य-मूह आदि होता है ।-मृद्ध-नव्य मार्ग के हेतु (१) मृदु-मृदु मार्ग के हेतु है , (२) स्वकीय हेतु हैं। अतःहम यह कह सकते हैं कि श्रद्धानुसारिमार्ग ६ मार्गों का सभागहत है। इस वाद से विवाद उत्पन्न होता है। आचार्य वसुमित्र का यह मत अयुक्त है कि श्रद्धानुमारी इन्द्रिय-संचार कर सकता है। व्या २०६.१९] [प्रायोगिकास्तयोरेव श्रुतचिन्तामयादयः] ?