पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२१२

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अभिधर्मकोश - यव, शालि, वीहि आदि वाह्य अर्थो का भी ऐसा ही है। किन्तु सभागहेतुत्व स्वसन्तान में ही होता है : यव यव का सभागहेतु है, शालि का नहीं। ३. दान्तिक इसका प्रतिषेध करता है कि रूप रूप का सभागहेतु है किन्तु यह महाशास्त्र (ज्ञानप्रस्थान, १३, १४) के विरुद्ध है : “अतीत महाभूत अनागत महाभूतों के हेतु और अधिपति हैं।" 'अधिपति' से अधिपति-प्रत्यय (२.६२ डी) अभिप्रेत है : 'हेतु' से सभागहेतु समझना चाहिए क्योंकि अन्य हेतु स्पष्ट ही निरस्त हैं । क्या सब सभागधर्म सभागधर्मो के सभागहेतु हैं ? नहीं। सभागहेतु हैं वह सभागधर्म ५२ बी. जो स्वनिकाय और स्वभूमि के हैं। अर्थात् एक निकाय और एक भूमि के धर्म उक्त निकाय और उक्त भूमि के सभाग- धर्मों के सभागहेतु हैं । धर्म पाँच निकायों में विभक्त हैं यथा वह चार सत्यों में से एक एक के दर्शन से हेय हैं या भावनाहेय है (१. ४०)। धर्मों की ९ भूमियाँ हैं : वह कामधातु के हैं, चार ध्यानों में से किसी एक के हैं या चार आरूप्यों में से किसी एक के हैं। [२५७] दुःखदर्शनहेय (दुःखदृग्हेय) धर्म दुःखदर्शनहेय धर्म का सभागहेतु है, अन्य चार निकायों के धर्मों का नहीं है । एवमादि । दुःखदर्शनहेय धर्मों में जो कामधातु का है वह कामधातु के धर्म का सभागहेतु है। एवमादि । सभागहेतु का अभी यथार्थ निर्देश नहीं हुआ है। वास्तव में केवल वह धर्म सभागहेतु हैं जो ५२ बी. अग्रज हैं। अग्नज अतीत-प्रत्युत्पन्न धर्म उत्पन्न-अनागत उत्तर सभागधर्मों का सभागहेतु है, अनागत धर्म सभागहेतु नहीं है । १. किस प्रमाण पर यह लक्षण आश्रित हैं ? मूलशास्त्र पर क्योंकि ज्ञानप्रस्थान (१, ११) कहता है : “सभागहेतु क्या है ? उत्पन्न और अग्रज कुशलमूल स्वनिकाय और स्वभूमि के पश्चात् कुशलमूल और तत्संप्रयुक्त धर्मों के प्रति सभागहेतु है। इसी प्रकार अतीत कुशल-मूल अतीत और प्रत्युत्पन्न कुशलमूलों के प्रति सभागहेतु हैं ; अतीत और प्रत्युत्पन्न कुशलमूल अनागत कुशलमूलों के प्रति सभागहेतु हैं।" २. दोप-अनागत धर्म सभागहेतु है क्योंकि इसी ज्ञानप्रस्थान में यह पठित है : “जो धर्म किसी धर्म का हेतु है क्या कोई ऐसा अध्व है जहाँ यह उसका हेतु न हो? --कभी ऐसा नहीं होता कि यह धर्म हेतु न हो (न कदाचिन्न हेतुः)।" [व्या १९९. २३] .. । स्वनिकायभुवो अग्रजाः [च्या १९९.१८] परमार्थ के अनुसार--शुआन्-चाड में नहीं है, मूल में नहीं है। २