पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९८

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१८४ अभिधर्मकोश लिये.... ३ ४ ५. वैभाषिक कहते हैं कि जाति आदि चार लक्षण द्रव्य है। -क्यों?--क्या हम आगम का त्याग इसलिये करें कि दूषक हैं ? मृग है इसलिये क्या कोई क्षेत्र का वपन नहीं करता ?, मक्षिका गिरती हैं इसलिये क्या कोई मोदक नहीं खाता ? ५---दोष का प्रतिविधान करना चाहिये [२३८] और सिद्धांत काअनुसरण करना चाहिये। (दोषेषु प्रतिविधातव्यं सिद्धान्तश्चानुसर्तव्यः) [व्या०१८१.२५] नामकायादयः संज्ञा वाक्याक्षरसमुक्तयः । कामरूपाप्तसत्त्वाख्या निष्यन्दाव्याकृतास्तथा ॥४७॥ सभागता विपाकोऽपि त्रैधातुक्याप्तयो द्विधा । लक्षणानि च निष्यन्दाः समापत्यसमन्वयाः॥४८॥ नामकाय, पदकाय, व्यंजनकाय क्या हैं ? २ विभाषा, ३८, १२ : कुछ का मत है कि संस्कृत लक्षण द्रव्य नहीं है। यह दष्टिान्तिक हैं जो कहते हैं कि "संस्कृत लक्षण विप्रयुक्तसंस्कारस्कन्ध में संग्रहीत हैं, विप्रयुक्त संस्कार- स्कन्ध द्रव्य नहीं हैं। अतः संस्कृत लक्षण द्रव्य नहीं हैं। उनके मत का प्रतिषेत्र करने के शुभआन्-चाङ : "यह वाद सुष्टुं है । क्यों ?" अर्थात् अभिधर्मशास्त्र । एक ही अर्थ को चार लोकोक्ति हैं : एक अच्छी वस्तु का हम इसलिये परित्याग नहीं करते कि इसमें दोष है, इसमें यह भय है। ए. न हि भिक्षुकाः सन्तीति स्थाल्यो नाधिश्रीयन्ते । बी. न च मृगाः सन्तीति यवा (पाठान्तरं शालयो) नोप्यन्ते । यह दो लोकोक्तियाँ प्रायः साथ पाई जाती हैं। इनका अध्ययन कर्नल जेकब ने 'सेकेण्ड हैण्ड- फुल आफ पापुलर मैक्सिम्स' (बंबई, निर्णयसागर, १९०९, पृ.४२, अनुक्रमणिक-नहि भिक्षुकाः) में किया है। उन्होंने हवाले भी दिये हैं : महाभाष्य, १.९९, २.१९४, ३.२३ (कोलहान), इसी अर्थ में (न हि दोषाः सन्तीति परिभाषान वार्तव्या लक्षणं वानप्रणेयम्। नहि भिक्षुकाः ...); वाचस्पतिमिश्र, न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका, पृ.६२, ४४१; भामती, पृ० ५४; सर्वदर्शनसंग्रह, कावेल के अनुवाद का पृष्ठ ३--कामसूत्र का भी उल्लेख करना चाहिये (कैटलाग आक्सफोर्ड २१६ वो देखिये) जहाँ यह दो लोकोक्तियाँ वात्स्यायन को बताई गई हैं (वेबर को सूचना, इन्डोशे स्टूडियन १३, पृ. ३२६) । सी. अतोऽजीर्णभयान्नाहारपरित्यागो भिक्षुकभयान्न स्थाल्या अनधिश्रयणं दोषेषु प्रति- विधातव्यमिति न्यायः । इस तीसरी लोकोक्ति के लिये कर्नल जैकव पंचपादिका, पृ.६३ (जिसका अन्तिम भाग 'दोषेष प्रतिविधातव्यम्' वसुबन्धु में है), जीवन्मुक्तिविवेक, पृ.८ (जो इस लोकोक्ति को आनन्दवोधाचार्य का बताता है) और हितोपदेश, २.५०, दोपभीतेरनारम्भः..... उद्धृत करते हैं। डी. न मक्षिकाः पतन्तीति मोवफा न भक्ष्यन्ते । इस लोकोक्ति के लिये वसुबन्धु के अतिरिक्त दूसरा प्रमाण नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है फि भिक्ष होने के कारण बौद्धों ने भिक्षुफ और स्यालो को लोकोक्ति के स्थान में मक्षिका और मोदक को फम चुभने वाली उक्ति स्वीकार की है । ५ ,