पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१९०

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१७६ अभिधर्मकोश हैं (न द्रव्यतः संविद्यन्ते [व्या १७३.२५]) जो इनका विभाग हो। हमको द्रव्यों की- रूपादि धर्मों की उपलब्धि प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम से होती है : इन तीन प्रमाणों से लक्षणों का द्रव्यतः अस्तित्व नहीं सिद्ध होता । किन्तु सर्वास्तिवादिन् उत्तर देता है कि सूत्रवचन है कि "संस्कृत का उत्पाद प्रज्ञात होता है (उत्पादोऽपि प्रज्ञायते.........")२ मूर्ख ! व्यंजन तुम्हारा प्रतिसरण है और तुम अर्थ के विषय में भूल करते हो किन्तु भगवत् ने कहा है कि अर्थ प्रतिसरण है, व्यंजन प्रतिसरण नहीं है । इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है । अविद्या से अन्ध बाल की संस्कार-प्रबन्ध में आत्मतः और आत्मीयतः अधिमुक्ति होती है और इसलिये इस प्रवन्ध में उनका अभिष्वंग होता है, उनकी रुचि होती है। भगवत् इस मिथ्या कल्पना का और तज्जनित अभिष्वंग का अन्त करना चाहते हैं। वह यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि प्रवाह संस्कृत - है अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पन्न है और वह बताते हैं कि प्रतीत्यसमुत्पन्न के कौन तीन लक्षण हैं : "संस्कृत के तीन संस्कृत-लक्षण विज्ञान-विषय हैं।" भगवत् प्रवाह का ही संस्कृतत्व द्योतित करना चाहते हैं क्योंकि यह स्पष्ट है कि प्रवाह क्षण के वह तीन लक्षण नहीं बताते क्योंकि वह कहते हैं कि यह तीन लक्षण प्रज्ञात होते हैं। वास्तव में [२२७] क्षण का उत्पाद, जरा और व्यय अप्रज्ञायमान हैं। जो अप्रज्ञायमान है वह लक्षण होने की योग्यता नहीं रखता। सूत्र संस्कृत शब्द का पुनः ग्रहण इसलिये करता है--"संस्कृत के तीन संस्कृत लक्षण हैं"--जिसमें आप जानें कि यह तीन लक्षण संस्कृत के अस्तित्व के लक्षण नहीं हैं (संस्कृता- स्तित्वे लक्षणानि) यथा बलाका समीप के जल के अस्तित्व का लक्षण है; यह संस्कृत के साधु- असाधुत्व के लक्षण नहीं हैं यथा कन्या के लक्षण बताते हैं कि यह शुभ या अशुभ हैं और यह द्रव्य के लक्षण नहीं हैं जो दिखाते हैं कि यह द्रव्य संस्कृत है (संस्कृतलक्षणम् = संस्कृतत्वे लक्षणम्)। [अतः हम सूत्र का अनुवाद इस प्रकार करते हैं : "संस्कृत के तीन प्रत्यक्ष लक्षण हैं जो दिखाते हैं कि यह संस्कृत है अर्थात् प्रतीत्यसमुत्पन्न है ।"] २. हमारे अनुसार उत्पाद या जाति का यह अर्थ है कि प्रवाह का आरंभ हैं (प्रवाहस्य आदिः); व्यय या अनित्यता प्रवाह की निवृत्ति, उपरति है; स्थिति आदि से निवृत्ति तक अनुवर्तमान प्रवाह है; स्थित्यन्यथात्व या जरा अनुवर्तमान प्रवाह का अन्यथात्व, पूर्वापर विशेष है । इस दृष्टि से अर्थात् उत्पाद, व्यय आदि को प्रवाहरूप से अवधारण कर, प्रवाहादि, प्रवाहनिवृत्ति, अनुवर्तमानप्रवाह, प्रवाहान्यथात्व अवधारण कर भगवत् ने नन्द से जो नित्य उपस्थितस्मृति थे २ 1 पृ.२२३ टिप्पणी १ देखिये । चत्वारोमानि भिसवः प्रतिसरणानि । कतमानि चत्वारि । धर्मः प्रतिसरणं न पुद्गलः । अर्थः प्रतिसरणं न व्यंजनम् । नीतार्यसूत्रान्तं प्रतिसरणं न नेयार्यम् । ज्ञानं प्रतिसरणं न विज्ञानम् । [व्या १७४.८] । मध्यमकावृत्ति २६८, ५९८ में उद्धृत ग्रन्थ । संघभत्र का उत्तर, ४०६, कालम २, पृ० १६