पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६८

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अभिधर्मकोश का प्रतिलाभ होता है। ३. मनुष्यादि गति से च्युत होना और अन्य गति में ( गतिसंचार ) उपपद्यमान होना; ४, इन आकारों को वजित कर अन्य आकार । सौत्रान्तिक सभागता नामक धर्म को स्वीकार नहीं करते और अनेक दोष दिखाते हैं । १. यदि पृथग्जनसभागता नाम का कोई द्रव्य है तो फिर आर्यधर्म-अलाभस्वभाव (२.४० सी) पृथग्जनत्व की कल्पना से क्या प्रयोजन? पृथग्जनसभागता से ही पृथग्जन होगा यथा मनुष्यसभागता से ही मनुष्य होता है क्योंकि वैभाषिक मनुष्यसभागता से अन्य मनुष्यत्व की कल्पना नहीं करते। २. लोकसभागता को प्रत्यक्ष नहीं देखता। वह प्रज्ञा से सभागता का परिच्छेद नहीं करता (परिच्छिनत्ति) क्योंकि सभागता का कोई व्यापार नहीं है जिससे उसका ज्ञान हो : यद्यपि लोक सत्वसभागता को नहीं जानता तथापि उसमें सत्वों के जात्यभेद की प्रतिपत्ति होती है (प्रतिपद्यते) । अतः सभागता के होने पर भी उसका व्यापार क्या होगा? ३. निकाय को शालि, यव, सुवर्ण, लोह, आम्र, पनस आदि की असत्वसभागता भी क्यों नहीं इष्ट है ? किन्तु उनके लिये सामान्य प्रज्ञप्तियों का उपयोग होता है । ४. जिन विविध सभागताओं की अर्थात् सत्वसभागता, धातुसभागता, गतिसभागता आदि की प्रतिपत्ति निकाय को है वह अन्योन्य भिन्न हैं। किन्तु सब के लिये सामान्य बुद्धि और प्रज्ञप्ति होती है: सब सभागता है । [१९८] ५. सर्वास्तिवादिन् वैशेषिकों के वाद का समर्थन करता है (द्योतयति) । यह भी सामान्यपदार्थवादी है जिस सामान्य के योग से वस्तुओं के लिये सामान्य बुद्धि और प्रज्ञप्ति का उत्पाद होता है । वह विशेष नामक एक दूसरा द्रव्य भी मानते हैं जिससे विविध जाति के लिये विशेष बुद्धि और प्रज्ञप्ति प्रवृत्त होती है । वैभापिका इसका विरोध करता है और कहता है कि उसका वाद वैशेषिकों के बाद से भिन्न है । वैशेषिक मानते हैं कि सामान्य एक पदार्थ है जो एक होते हुए भी अनेक में वर्तमान है (एकोऽप्यनेकस्मिन् वर्तते [व्या० १५९.२] । अतः वह कहता है कि यदि मैं वैशेषिकों के सामान्य को द्योतित करता हूँ तो मैं उनके बताये हुए निरूपण को दूषित करता हूँ।--सभागता द्रव्य है क्योंकि भगवत् नरक में उपपन्न प्राणातिपातकारी का वर्णन करते हुए कहते है कि "यदि वह इत्यत्व को प्राप्त होता है, यदि वह मनुष्यों की सभागता को प्राप्त होता है . (मध्यम, २४, ३) 31 4 व्याख्या में सूत्र उद्धृत है : प्राणातिपातेनासेवितेन भावितेन बहुलीकृतेन [व्या० १५९.६] (अंगुत्तर, ४.२४७, आदि से तुलना कीजिये) नरकेपपद्यते । स चेद् इत्यत्वमागच्छति मनुष्याणां सभागतां प्राप्नोति प्राणातिपातेनाल्पायुभवति. .१ दशभूमक में स चेद्.. इस वाक्य के स्थान में 'अय चेत् पुनर्मनुष्येषूपपद्यते' है। दिन्य, १९४, ३० : मनुष्याणां सभागतीयामुपपन्न इति (महाव्युत्पत्ति, २४५, ५४);