पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६६

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अभिधर्मकोश धर्मों का सहोत्पाद होता है अर्थात् (१) यही धर्म जिसे मूलधर्म कहते हैं, (२) मूलधर्म की प्राप्ति, (३) इस प्राप्ति की प्राप्ति । प्राप्ति के उत्पादवश वह सत्व मूलधर्म से और प्राप्ति प्राप्ति से समन्वागत होता है; प्राप्ति-प्राप्ति की उत्पत्ति से वह प्राप्ति से समन्वागत होता है । अतः अनवस्थाप्रसंग नहीं होता ।~~जब कुशल या क्लिष्ट २ धर्म की उत्पत्ति होती है तो उसी क्षण में तीन धर्मों का सहोत्पाद होता है । इनमें यह 'कुशल' या क्लिष्ट धर्म संगृहीत है । तीन धर्म यह हैं : मूलधर्म, उसकी प्राप्ति, इस प्राप्ति की प्राप्ति (प्राप्ति-प्राप्ति) ३ । द्वितीय क्षण में ६ धर्मो का सहोत्पाद होता है---अर्थात् मूल धर्म की प्राप्ति, प्रथम क्षण की प्राप्ति-प्राप्ति, प्रथम क्षण की प्राप्ति-प्राप्ति की प्राप्ति तथा तीन अनुप्राप्ति जिनके योग से पूर्वोक्त तीन प्राप्तियों से समन्वागत होता है । तृतीय क्षण में १८ धर्मो का सहोत्पाद होता है अर्थात् ९ प्राप्ति : प्रथम क्षणोत्पन्न तीन धर्मों की प्राप्ति; द्वितीय क्षणोत्पन्न ६ धर्मों की प्राप्ति तथा ९ अनुप्राप्ति जिनके योग से पूर्वोक्त ९ प्राप्तियों के योग से समन्वागत होता है । [१९५] इस प्रकार प्राप्तियों का उत्तरोत्तर वृद्धि-प्रसंग होता है । अनादि-अनन्त संसार में पर्यापन्न अतीत-अनागत क्लेशों को (क्लेश और उपक्लेश) प्राप्तियां और संप्रयोग (२.५३ सी-डी) तथा सहभू धर्मो (२. ५० वी) के सहित उत्पत्तिलाभिक (२.७१ वी) कुशल धर्मों की प्राप्तियाँ प्रतिक्षण अनन्त संख्या में उत्पन्न होती है । यदि संसरण करते हुए एक प्राणी की सन्तति का विचार करें तो क्षण २ पर उत्पद्यमान प्राप्तियों की संख्या अनन्त होती है । पुनः यदि वहुप्राणियों का विचार किया जाय तो अप्राप्तियां अनन्त अप्रमेय होती हैं । यह प्राप्तियों का अति उत्सव है कि यह अरूपिणी हैं : इसलिये यह अवकाश का लाभ करती हैं । यदि यह प्रतिधातिनी होती तो एक प्राणी की प्राप्तियों को नीलाकाश में स्थान न मिलता । दो प्राणियों की प्राप्तियों को तो और भी कम । 'निकाय सभाग' (सभागता) क्या है ? सत्वसाम्यमासंशिकमसंजिषु । निरोधश्चित्तचैतानां विपाकस्ते बृहत्फलाः ॥४१॥ २.४५ सी-डी. में वर्णित जाति-क्रीड़ा और जातिजाति को क्रीड़ा से तुलना कीजिये। २ यही अव्याकृत धर्म को परीक्षा नहीं करते क्योंकि इसकी प्राप्ति सहज ही होती है (तस्य सहर्जव प्राप्तिः) : संख्या भिन्न है। [व्या० १५६.१० 3 जापानी संपादक का कहना है कि इन तीन धर्मों में से प्रत्येक के लिये चार लक्षण तथा चार अनुलक्षण (२.४५ सी-डी) अधिक होना चाहिये । इस प्रकार प्रथम क्षण में २७ धर्म १ चतुर्थ क्षण में २७ प्राप्ति होती है अर्थात् प्रथम-द्वितीय-तृतीय क्षण में उत्पन्न धर्मों की ३,६,१८ प्राप्तियाँ, तथा २७ अनुप्राप्तियां: इस प्रकार ५४ धर्म । पांचवें क्षण में ८१ प्राप्ति और इतनी हो अनुप्राप्ति । सभागता सत्त्वसाम्यम्-प्रकरण, १४ वी ६ : "निकायसभाग क्या है ?"-~सत्वों की स्मभावसमता। [व्या० १५३.३] सभागता १ होते हैं। २