पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१६०

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१४६ 'अभिधर्मकोश 4 २ वैभाषिक कहते हैं कि प्राप्ति और अप्राप्ति द्रव्यसत् हैं। क्यों ? ~~-क्योंकि यह हमारा सिद्धान्त है। यविकानां त्रिविधा शुभादीनां शुभादिका । स्वधातुका तदाप्तानामनाम्तानां चतुविधा ॥३७॥ ३७ ए. वैयध्विक धर्मो की प्राप्ति त्रिविध है। अतीत धर्मों की प्राप्ति अतीत, प्रत्युत्पन्न, अनागत, त्रिविध होती है । इसी प्रकार प्रत्यु- त्पन्न और अनागत धर्मों को समझना चाहिये । [१८७] ३७ बी. शुभादि धर्मों की शुभादिक प्राप्ति। कुशल, अकुशल, अव्याकृत धर्मो की प्राप्ति यथाक्रम कुशल, अकुशल, अव्याकृत होती है। ३७ सी. धात्वाप्त धर्मो की प्राप्ति स्वधातुक होती है। २ धात्वाप्त धर्म सास्रव धर्म हैं। कामावचर धर्म की प्राप्ति स्वयं कामधातुपतित होती है। इसी प्रकार अन्य को जानिये। ३७ डी. अधातुपतित धर्मों की प्राप्ति चतुर्विध है। समासेन अनास्रव धर्मों की प्राप्ति चतुर्विध है : यह धातुक है, यह अनास्लव है । किन्तु इनके अवान्तर भेदों को व्यवस्थापित करना है । १. अप्रतिसंख्यानिरोध (पृ. १८० देखिये) की प्राप्ति उस धातु की होती है जिसमें वह पुद्गल उपपन्न होता है जो उसकी प्राप्ति करता है। २. प्रतिसंख्यानिरोध की प्राप्ति रूपाचचरी, अरूपावचरी और अनासव होती है। 3 तिब्बती भावान्तर और परमार्थ--शुआन्-चाड "दोनों मार्ग (सौत्रान्तिकवाद, वैभाषिकवाद) कुशल हैकैसे ?--प्रथम युक्तिविरुद्ध नहीं है। दूसरा हमारा सिद्धान्त है।" पंचस्वन्धक : प्राप्तिः कतमा ? प्रतिलम्भः समन्वागमः ।..... बीजं वशित्वं संमुखी. भावो यथायोगम् (तिब्बती भाषान्तर के अनुसार) २ [यध्यिकानां त्रिविधा] ३ अतीत धर्मों की प्राप्ति (१) अतीत है अर्थात् 'जो उत्पन्न-निरुद्ध है' : यह इन धर्मों की अग्रज, पश्चात्कालज या सहज होती है। (२) अथवा अनागत है अर्थात् "जो अनुत्पन्न है"; यह इन धर्मो की पश्चात् कालज होगी; अथवा प्रत्युत्पन्न है अर्थात् "जो उत्पन्न और अनिरुद्ध है" : यह इन धर्मों की पश्चातकालज है। इसी प्रकार अन्य की योजना कीजिये। प्रत्येक धर्म को यह विविध प्राप्ति नहीं होती। यथा 'विपाकज' धमों की प्राप्ति केवल इन धर्मों को सहज (२.३८ सी) होती है। इनके उत्पन्न होने के पूर्व और निरुद्ध होने के पश्चात् इन धमों को 'प्राप्ति' नहीं होती। शुभादीनां शुभाविका। स्वधातुका तवाप्तानाम्-सात्रव-धर्म धात्वाप्त, धातुपतित होते हैं। ३ अनाप्तानां चतुर्विधा व्या० १५१.३] ॥--यह अभिधम्म के अपरियापन हैं। ४ प्रतिसंख्यानिरोध का प्रतिलभ या 'क्लेशविसंयोग' (१.६ ए-बी, २.५७ डी) पृथग्जन और आयं दोनों कर सकते हैं। प्रथम अवस्था में प्राप्ति रूपावचरी है यदि निरोध रूपावचर १ २