पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१५२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१३८ अभिधर्मकोश एक दूसरे मत के अनुसार अर्थात् आचार्य के अनुसार वितर्क और विचार चित्त में एकत्र नहीं होते। यह पर्यायवर्ती है । वैभाषिक यह दोष दिखाते हैं कि प्रथम ध्यान के पांच अंग पंचाङ्ग (८.७) कैसे हैं जिसमें वितर्क और विचार भी हैं । हमारा उत्तर है कि प्रथम ध्यान में ५ अंग इस अर्थ में होते हैं कि ५ अंग भूमितः हैं, न कि क्षणतः; ५ अंग प्रथम ध्यानभूमिक हैं किन्तु प्रथम ध्यान के एक क्षण में केवल चार अंग होते हैं : प्रीति, सुख, समाधि और वितर्क या विचार । [१७६] मान और मद में क्या भेद हैं (विभाषा, ४२,.८)? ३३ वी. मान उन्नति है।' पर के प्रति चित्त की उन्नति (चेतस उन्नतिः) मान है [व्या १४०.२८] । दूसरे की अपेक्षा अपने भूत' या अभूत गुणों के उत्कर्ष के परिकल्प से वह अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष करता है (५.१० ए)। ३३ सी-डी. इसके विपरीत स्वधर्मों में अनुरक्त पुद्गल के चित्त का पर्यादान मद है। मद राग-निष्यन्द है। स्वधर्म में अनुरक्त होने के कारण चित्त उन्मत्त होता है, चित्त में दर्प होता है और वह संनिरुद्ध होता है। अन्य आचार्यो के अनुसार यया मद्य संप्रहर्ष विशेष का ." २ वितर्क और विचार युगपत् नहीं होते किन्तु पर्याय से होते हैं । वितर्क और विचार में क्या विशेष है ? पूर्वाचार्य कहते हैं : “वितर्क क्या है ?--यह पर्येषक मनोजल्प है जो अनभ्यूहा- वस्था और अभ्पूहावस्था में यथाक्रम चेतना और प्रज्ञा का निश्रय लेता है। यह चित्त की औदारिकता है।--विचार क्या है ? यह प्रत्यवेक्षक मनोजल्प है जो अनभ्यूहावस्था और अभ्यूहावस्था में यथाक्रम चेतना और प्रज्ञा का निश्रय लेता है । यह चित्त की सूक्ष्मता है।" इस पक्ष में वितर्क और विचार एक स्वभाव के दो समुदायरूप हैं : इनमें भेद इतना ही है कि एक पर्येषणाकार है, दूसरा प्रत्यवेक्षणाकार है । कोई एक उदाहरण देते हैं। बहुत से घटों के अव- स्थित होने पर यह जानने के लिये कि कौन दृढ़ है, कौन जर्जर, मुष्टि अभिधात से अह करते हैं । यह कह वितर्क है । अन्त में वह जानता है कि इतने दृढ़ हैं, इतने जर्जर' : यह विचार है। १.३३ को व्याख्या वसुबन्धु के पंचस्कन्धक को उद्धृत करती है । यह पूर्वाचार्यों के मत के बहुत निकट है। वितकः कतमः । पर्येषको मनोजल्पश्चेतनाप्रज्ञाविशेषः । या चित्तस्यो- दारिकता ॥ विचारः कतमः । प्रत्यवेक्षको मनोजल्पश्चेतनाप्रज्ञाविशेषः । या चित्तस्य सूक्ष्मता ॥ व्याख्या पुनः कहती है । अनभ्यूहावस्थायां चेतना अभ्यूहावस्थायां प्रज्ञेति व्यवस्था- प्यते । [व्या० १४०.१२] ८,१५९ देखिये । व्याख्या, ६७ का पाठ अत्यूह है। धम्मसंगणि, ७-८, काम्पेण्डियम, पृ. १०-११, मिलिन्द, ६२-६३ देखिये--अत्थसालिनी, २९६-२९७ वितर्क का लक्षण ऊहन बताती है और उसे औदारिक (ओळारिक) और विचार को सूक्ष्म (सुखुम) बताती है-योगसूत्र, १.१७ पर व्यासभाण्य : वितर्कश्चित्तस्यालम्बने स्यूल आभोगः । सूक्ष्मो विचारः; १.४२-४४. मान उन्नतिः। मदः स्वधर्मरक्तस्य पर्यादानं तु चेतसः। [व्या० १४०. ३०] ३ पर्यादीयते = संनिरध्यते [ज्या० १४१. १]: शिक्षासमुच्चय, १७७.१५, दिव्य, सूत्रालंकार, १.१२ देखिये। संघभद्र का लक्षण : यः स्वधर्मेषु एव रक्तस्य दर्पश्चेतसः पर्यादानं कुशलान्यक्रियाभ्युपपत्ति- संहारो मदः : १ २