पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१४६

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। 3 अभिधर्मकोश किन्तु जिस विप्रतिसार का आलम्बन अकृत कर्म है उसको कोकृत्य कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि लोक में कहते है: "मैंने यह अच्छा नहीं किया जो उसे नहीं किया", इस प्रकार 'अकृत' की भी 'कृत' आख्या होती है। कोकृत्य कव कुशल होता है ? जव कुशल न करके संताप होता है, जब अकुशल करके संताप होता है। यह अकुशल है जब अकुशल न करके संताप होता है, जब कुशल करके संताप होता है। इस उभय कौकृत्य का उभय अधिष्ठान होता है। आवेणिके त्वकुशले दृष्टियुक्ते च विंशतिः । प्लॉश्चतुर्भिः क्रोधायः कौकृत्येनकविंशतिः ॥२९॥ २९. आवेणिक और दृष्टियुक्त अकुशल चित्त में २० चैत्त होते हैं; जब यह क्रोधादि चार क्लेशों में से किसी एक से, या कोकृत्य से संप्रयुक्त होता है तब २१ होते हैं। २ १. आवेणिक चित्त अविद्या (५.१) मात्र से संप्रयुक्त और रागादि से पृथग्भूत चित्त है। दृष्टियुक्त अकुशल चित्त मिथ्यादृष्टि अथवा दृष्टिपरामर्श, अथवा शीलवतपरामर्श (५.३) से सं- प्रयुक्त चित्त है। सत्कायदृष्टि और अन्तग्राहदृष्टि से संप्रयुक्त चित्त अकुशल नहीं है किन्तु निवृताव्याकृत है। इन दो अवस्थाकों में अकुशल चित्त में १० महाभूमिक, ६ क्लेशमहाभूमिक, २ अकुशल- महाभूमिक और दो अनियत अर्थात् वितर्क और विचार होते हैं । दृष्टि की कोई पृथक् संख्या नहीं है क्योंकि दृष्टि प्रज्ञाविशेष है और प्रज्ञा महाभूमिक है। २. राग, प्रतिघ, मान, विचिकित्सा (५.१) से संप्रयुक्त अकुशल चित्त में २१ चैत होते है-पूर्वोक्त २० मीर राग प्रतिध आदि में से [१६८] क्रोधादि से अर्थात् पूर्ववणित उपक्लेशों में से किसी एक से (२.२७) संप्रयुक्त । निवृतेऽष्टादशान्यत्र द्वादशाऽव्याकृते मताः । सिद्धं सर्वाविरोधित्वाद् यत्र स्यादधिकं हि तत् ॥३०॥ ३० ए-बी. निवृताव्याकृत चित्त में १८ चैतसिक होते हैं; अन्यत्र १२ ।' कामवातु का अव्याकृत चूित निवृत्त अर्थात् क्लेशाच्छादित होता है जब वह सत्कायदृष्टि या अन्तग्राहदृष्टि से संप्नयुक्त होता है । इस चित्त में १० महाभूमिक, ६ क्लेशमहाभूमिक और वितर्क-विचार होते हैं । १ आवेणिके त्वफुशले दृष्टियुक्ते च विशतिः । [व्या० १३३.३३-३४] फ्लेशश्चतुर्भिः फोघाद्यः फोकृत्येनकविंशतिः ॥ [व्या० १३४.४] 3 आवेणिक = रागादि पृयाभूत । [ध्या० १३३.३३] सर्वदृष्टि संतीरिका प्रज्ञा है (१.४१.सी-डी, ७.१) व्या० १३४.२] । १ निवतेऽष्टादश] अन्यत्र द्वादशाव्याकृते मताः ।