पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१३२

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११८ अभिधर्मकोश [१४९] वैभाषिक कहते हैं- नहीं, क्योंकि हम काठिन्यादि भूतचतुष्क जाति का यहाँ ग्रहण करते हैं । जो एक भूतचतुष्क की जाति है उसका अन्य भूतचतुष्क अतिक्रमण नहीं करते चाहे यह उपादायरूप मन्ध के आश्रय हों या उपादायरूप भौतिक रूप, रस, स्प्रष्टव्य के आश्रय हो । किन्तु आप इस प्रकार अस्पष्ट रीति से अपने को क्यों व्यक्त करते हैं और द्रव्य शब्द को दो भिन्न अर्थो में क्यों प्रयुक्त करते हैं ? वाणी की प्रवृत्ति छन्द के अनुसार होती है किन्तु अर्थ की परीक्षा करनी चाहिए।' ३. चैत्त (२३-३४) चित्तवेत्ताः सहावश्यं सर्व संस्कृतलक्षणः । प्राप्त्या वा पंचधा चैता महाभूम्यादिभेदतः ॥२३॥ २३ ए. चित्त-चत्त का अवश्य सहोत्पाद होता है । चित्त और चत्त एक दूसरे के बिना उत्पन्न नहीं होते । २३ वी. सब अवश्य संस्कृतलक्षणों के साथ उत्पन्न होते है । [१५०] सब संस्कृत धर्म, रूप, चित्त (२.३४), चैत, चित्तविप्रयुक्त संस्कार (२.३५) अपने संस्कृतलक्षणों के साथ अर्थात् जाति, स्थिति, जरा और अनित्यता (२.४६ ए) के साथ अवश्य उत्पन्न होते हैं। २३ सी. कभी प्राप्ति के साथ ।' इन सात द्रव्यों में से प्रत्येक में पृथिवी, अप, तेज, वाय यह चार द्रव्य होते हैं: पृथिवी द्रव्य में ७ पृथिवी द्रव्यपरमाणु होते हैं, इत्यादि । अतः (१) पृथिवी, अयू, तेज, वायु के सात द्रव्यपरमाणु, कुल २८ द्रव्यपरमाणु का एक भूत- चतुष्क द्रव्यपरमाणु होता है । (२) एक भूतचतुष्क द्रव्यपरमाणु अकेले नहीं रहता : भौतिक रूप के एक द्रव्यपरमाणु के आश्रयभूत सात का समुदाय होता है (७४२८=१९६ वन्यपरमाणु)। (३) भौतिक रूप का द्रव्यपरमाणु अपने आधयों के साथ अर्थात् भूतचतुष्क के द्रव्यपर माणुओं के साथ [१+१९६= १९७ द्रव्यपरमाणु], अन्य ६ सदृश द्रव्यपरमाणुओं से मिलकर संघात बनाता है: अतः भौतिक रूप के द्रव्यपरमाणु में १३७९ (७४ १९७) द्रव्यपरमाणु होते हैं । [किन्तु सर्व भौतिक में रूपत्व, गन्धत्व, रसत्व, स्प्रष्टव्यत्व होता है । अतः पृथग्भाव में अब- स्थित रूप के अत्यल्प भाग के प्राप्त करने के लिए इस संख्या को चार से गुणा करना चाहिए। 'छन्दतो हि वाचां प्रवृत्तिः । अर्थस्तु परोक्ष्यः [व्या० १२६.२१]--अर्थात् छन्दत इच्छातः संक्षेपविस्तरविधानानुविधायिन्यो याचः प्रवर्तन्ते । अर्थस्स्वाभ्याम् परीक्ष्यः । २ चित्तवेताः सहावश्यम् [व्या० १२७.३] चित्त: मनस् : विज्ञान। चंत्त - चतस- चैतसिक = चित्तसंप्रयुक्त । ३ सर्वम् संस्कृतलक्षणः। [या० १२७.७] ४ प्राप्त्या वा।