पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/११०

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अभिधर्मकोश मूल शास्त्र के अनुसार (ज्ञानप्रस्थान, १२, १४): "किस प्रकार एक भिक्षु आयुः संस्कार का अधिष्ठान करता है ?--ऋद्धिमान् (=प्राप्ताभिज्ञः, ७.४२)अर्हत् जो चेतोवशित्व को प्राप्त है अर्थात् जो असमयविमुक्त (६.५६, ६४) है संघ को या किसी पुद्गल को चीवर, पानादि जीवित-परिष्कार देता है; देकर वह आयु का प्रणिधान करता है; ५ तदनन्तर वह प्रान्तकोटिक (७.४१) चतुर्थ ध्यान में समापन्न होता है; इस समाधि से व्युत्थान कर वह चित्त का उत्पाद करता है और यह वचन कहता है कि "जो मेरा भोगविपाक कर्म हो वह आयुविषाकदायी हो !" सब वह कर्म (दान और समाधि) जिसका भोग-विपाक होता है आयुर्विपाक का उत्पाद करता [१२१] अन्य आचार्यों के अनुसार अर्हत् का अवस्थापित जीवित पूर्वकृत कर्म का विपाक फल है। उनके अनुसार यह जन्मान्तर-कर्म का विपाकोच्छेष है जिसके फल की परिसमाप्ति अकाल- मरण (२.४५) से न हो पाई और यह चतुर्थ ध्यान का भावना-अल है जो इस विपाकोच्छेष का आकर्षक है और जिसके कारण यह उच्छेष अब विपच्यमान और प्रतिसंवेदित होता है। "एक भिक्षु आयुःसंस्कार का उत्सर्ग (त्यजति, उत्सृजति) कैसे करता है ? एक ऋद्धिमान अर्हत् चतुर्थध्यान में समापन्न होता है . ....; इस समापत्ति से व्युत्थान कर वह चित्त का उत्पाद करता है और यह वचन भाषित करता है: जिस कर्म का आयुर्विपाक होता हो वह भोगविपाकदायी हो! "तब आयुर्विपाकदायी कर्म भोग-विपाक का उत्पाद करता है।" भदन्त घोषक कहते हैं कि “प्रान्तकोटिक ध्यान भावनाबल से इस अर्हत के काय में रूप- धातु के महाभूत आकृष्ट और सम्मुखीभूत होते हैं। यह महाभूत आयुःसंस्कार के अनुसाहक पर उपधातक होते हैं। इस प्रकार अर्हत् आयुःसंस्कार का अवस्थान या उत्सर्ग करता है। (दिव्य चक्षु के बाद से तुलना कीजिए, ७, १२३) सौत्रान्तिकों के समान हम कहते हैं कि समाधिवशित्व के कारण अर्हत् इन्द्रिय-महाभूतों के स्थितिकाल के आवेध (स्थितिकालावेघ) का जो पूर्वकर्मज है व्यावर्तन करते हैं (व्यावर्तयन्ते) [व्या १०४.३० में व्यावर्तयन्ति पाठ है । इसके विपरीत वह अपूर्व समाधिज आक्षेप का उत्पाद करते हैं। अतः अर्हत् के अधिष्ठित आयुः संस्कार की अवस्था में जीवितेन्द्रिय विपाक नहीं है। अन्य अवस्थाओं में वह विपाक है। २. प्रश्न से प्रश्नान्तर उत्पन्न होता है। १. किस हेतु से अर्हत् आयुःसंस्कार का अधिष्ठान करता है ? दो हेतु से--परहितार्थ और शासन को चिरस्थिति के लिए। वह देखता है कि उसके जीवन ५ तत् प्रणिधाय । व्याख्या : तदायुः प्रणिधाय चेतसि कृत्वा व्या० १०४.१५]-विभाषा, यति भोगविपाकं फर्म तदायुर्विपाकदायि भवतु । च्या० १०४.२१ में यद्धि के स्थान में यन्मे पाठ है। १ व्याख्या : परहितार्य बुद्ध भगवत् शासनस्थित्यर्थ श्रावक-लेवी और शावन्ने : सिक्स अर्हत् प्रोटेस्टस आफ बी ला, जे. एएस.१९१६, २, ९ और आगे देखिए।