पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०७

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय - ९३ ९ ए-बी. दर्शन मार्ग, भावना मार्ग और अशैक्ष पथ में ९ इन्द्रियों को तीन इन्द्रिय करते मनस्, सुख, सौमनस्य, उपेक्षा, श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा यह ९ द्रव्य दर्शन- मार्गस्य आर्य में अनाज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रिय व्यवस्थापित होते हैं, भावनामार्गस्थ आर्य में आशेन्द्रिय और अशैक्ष (=अर्हत्) मार्गस्थ आर्य में आज्ञातावीन्द्रिय व्यवस्थापित होते हैं । [११७] दर्शनमार्गस्थ आर्य अनाज्ञात अर्थात् सत्यचतुष्टय के जानने में प्रवृत्त होता है (अनाज्ञातमाज्ञातुं प्रवृत्तः) [व्या १०१.३३] : "मैं जानूंगा” ऐसा यह विचार करता है । अतः उसकी इन्द्रिय अनाज्ञातमाज्ञास्यामीन्द्रिय कहलाती है । भावनामार्गस्थ आर्य के लिए कोई अपूर्व नहीं है जिसे उसे जानना हो; वह आज्ञ है । किन्तु शेप अनुशयों के प्रहाण के लिए वह आज्ञात सत्यों को पीनःपुन्येन जानता है। उसकी इन्द्रिय आज्ञेन्द्रिय कहलाती है -आज्ञ पुद्गल की इन्द्रिय या आज्ञ इन्द्रिय (आशं एवेन्द्रियं इति वा) व्या १०२.५] । अक्षमार्गस्थ योगी को यह अवगम होता है कि वह जानता है : उसको इसका अवगम (माव= अवगम)४ होता है कि सत्य आज्ञात हैं (आज्ञातमिति) । जिसके आज्ञाताव है वह आज्ञातावी है और उसकी इन्द्रिय आज्ञातावीन्द्रिय कहलाती है।--अथवा वह आर्य आज्ञातावी २ २ दृम्भावनाशक्षपये निव त्रीणि] [व्या० १०१.२०] 3 वास्तव में तीन अनास्लव इन्द्रियों के कलाप में केवल सात इन्द्रियाँ संगृहीत हैं क्योंकि तीन वेदनाओं का साहचर्य नहीं होता। जब योगी मार्ग की भावना फरने के लिए प्रयम-द्वितीय ध्यानभूमिक होता है तब वह सौमनस्येन्द्रिय से हो समन्वागत होता है। जब वह तृतीय- ध्यानभूमिक होता है तब उसमें केवल सखेन्द्रिय होती है और जव वह अन्यभूमिक होता है (अनागम्य, ध्यानान्तर, चतुर्थ ध्यान, प्रथम तीन आरूप्य) तब वह केवल उपेक्षे- न्द्रिय से समन्वागत होता है।-२.१६ सी-१७ वी देखिए । १ दर्शनमार्ग में सत्याभिसमय के प्रथम १५ क्षण संगृहीत है। इन क्षणों में योगी वह देखता है जिसे उसने पूर्व नहीं देखा था (६.२८ सी-डी) यह केवल अनास्रव है, ६.१ अलुक् समासः । आख्यातप्रतिरूपकश्चायम् आज्ञास्यामीतिशब्दः । अभिधम्म में मना- तञ्जस्सामोतीन्द्रिय है (विभंग, पृ. १२४) । व्या० १०२.२] 3 'भावना' शब्द के अनेक अर्थ है-'भावनामय' शब्द में भावना समाथिवाची है।--७.२७ में अन्य अर्थ दिए हैं (२.२५, २ से तुलना कीजिए)-भावनामार्ग' में भाधना का अर्थ 'पुनः पुनः दर्शन, ध्यान' है। दो भावना मार्ग हैं: ए. अनास्रव या लोकोत्तर भावनामार्ग। यहां यह भावनामार्ग इष्ट हैः दर्शनमार्ग में जिन सत्यों का दर्शन हो चुका है उनकी यह भावना है। सत्याभिसमय (६.२८ सी-डी) के १६ क्षण से इस मार्ग का आरम्भ होता है और महत्त्व को प्राप्ति से इसकी परिसमाप्ति होती है। चो. सातव या लौकिक भवनामार्ग । सत्य इसके विषय नहीं है (६.४९ ) । यह विना समुन्टेद किए फ्लेशों का विष्कम्भन करता है। यह दशनिमार्ग के पूर्व और पश्चात् दोनों हो सकता है। धातुपाठ, १.६३१०