पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/१०३

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द्वितीय कोशस्थान : इन्द्रिय ३ १. चित्त का आश्रय अर्थात् ६ विज्ञानेन्द्रिय, चक्षु से आरम्भ करके यावत् मनस् । यह ६ आध्यात्मिक आयतन (१.३९, ३.२२) हैं जो मौल सत्त्व-द्रव्य हैं। [१११] २. यह पड्विध आश्रय पुरुषेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय के कारण विशिष्ट होता है। ३. जीवितेन्द्रियवश यह एक काल के लिए अवस्थान करता है। ४. पांच वेदनाओं से यह संक्लिष्ट होता है। ५. श्रद्धादि पंचक से इसका व्यवदान-संभरण होता है। ६. तीन अनास्रव इन्द्रियों से इसका व्यवदान होता है । सत्त्व और द्रव्यसत्त्व के विकल्पादि के विषय में जिन धर्मो का अधिपतिभाव होता है वह इन्द्रिय माने जाते हैं 1 वाक् आदि अन्य धर्मो में इस लक्षण का अभाव होता है। प्रवृत्तेराश्रयोत्पत्तिस्थितिप्रत्युपभोगतः । चतुर्दश तथान्यानि निवृत्तेरिन्द्रियाणि वा ॥६॥ अन्य आचार्यों का दूसरा कल्प है: ६. अथवा १४ इन्द्रिय प्रवृत्ति के आश्रय, इस आश्रय की उत्पत्ति, स्थिति और उपभोग है; अन्य इन्द्रियों का निर्वाण के प्रति यही उपयोग है।' 'वा' से अन्य आचार्यों के व्याख्यान का आरंभ सूचित होता है (अपर: कल्पः) व्या० ९८. १२] (१-६) चक्षुरायतन से यावत् मन-आयतन, यह पडायतन (३.२२), संसार के नाश्रय हैं। (७-८) पुरुषेन्द्रिय-स्त्रीन्द्रिय से पडायतन की उत्पत्ति होती है। (९) जीवितेन्द्रिय से पडायतन की स्थिति होती है। (१०-१४) ५ वेदनाओं से पडायतन का उपभोग होता है। दूसरे पक्ष में : [११२] (१५-१९) श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा यह पंचेन्द्रिय निवृत्ति (= निर्वाण) (१.६ ए-बी) के आश्रय (प्रतिष्ठा) हैं । यह शब्द हमको १.३५ में मिला है (पृ. १११ टिप्पणी २ भी देखिए)। इन्द्रिय के ६ अधिष्ठान (इन्द्रियाविष्ठान) अर्यात् चलरूप आदि और ६ विज्ञानकाय (पड़ विज्ञानकायाः) भी सत्वदव्य है किन्तु मोल नहीं है क्योंकि वह पडिन्द्रिय के माधिपत्य से १ प्रवृत्तेराश्रयोत्पत्ति [स्थित्युपभोगतोऽयवा । चतुर्दश तथान्यानि निवृत्ताविन्द्रियाणि च ॥ [व्या० ९८.१३] २ पडायतनं मूलतत्वद्रव्धभूत संसरतोति प्रवृत्तेराश्रयः । [व्या० ९८.२१] - पडायतन प्रधानतः सत्व है जिसके बारे में कहते हैं कि संसरण करता है। अतः यह प्रवृत्ति का आश्रय है। प्रतिसन्धि-करन में केरल के भारतन, काय और मनत्, होते हैं (२.१४)। ३ 3