यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बाधा के रहने पर भी अज्ञात पदक्षप उधर ही को हो रहे थे । ज्यादा होश में आने पर राजकुमार भूल जाता था, कुछ समझ नहीं सकता था कि कनक से आखिर वह क्या कहेगा । बेहोशी के वक्त. कल्पना के लोक में तमाम सृष्टि उसके अनुकूल हो जाती, कनक उसकी, छाया- लोक उसके, बाग-इमारत, आकाश-पृथ्वी सब उसके। उसके एक-एक इंगित पर कनक उठती-बैठती, जैसे कभी तकरार हुई ही नहीं, कमी हुई थी, इसकी भी याद नहीं । राजकुमार इसी द्विधा में धीरे-धीरे चला जा रहा था। पीछे से एक मोटर और आ रही थी, यह सर्वेश्वरी की मोटर थी। कनक जब चली गई, तब सर्वेश्वरी को मालूम हुआ कि उसने गलती की । वहाँ सहायक'कोई न था। दूसरा उपाय भी न था। कनक की रक्षा के लिये वह उतावली हो रही थी। इसी समय उसकी दृष्टि राज- कुमार पर पड़ी। उसने हाथ जोड़ लिए, फिर बुलाया। राजकुमार समझ गया कि डेरे पर मिलने के लिये इशारा किया। उसके हृदय में आशा की समीर फूट पड़ी। पैर कुछ तेजी से उठने लगे। कनक की मोटर एक एकांत बँगले के द्वार पर ठहर गई । यहाँ कुँवर साहब अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ कनक की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक अर्दली कनक को उतारकर कुँवर साहब के बँगले में ले गया। ___कुँवर साहब का नाम प्रतापसिंह था, पर थे बिलकुल दुबले-पतले। इकीस वर्ष की उम्र में ही सूखी डाल की तरह हाथ-पैर, मुँह सीप की तरह पतला हो गया था। आँखों के लाल डोरे अत्यधिक अत्याचार का परिचय दे रहे थे। राजा साहब ने उठकर हाथ मिलाया । एक की की तरफ बैठने के लिये इशारा किया। कनक बैठ गई। देखा. वहाँ जितने आदमी थे, सब आँखों में वतला रहे थे। उन्हें देखकर वह डरी । उधर अनर्गल शब्दों के अव्यर्थ वाण एक ही लक्ष्य पर सातो महारथियों ने निश्शंक होकर छोड़ना प्रारंभ कर दिया-"उस रोज जब हम आपके यहाँ गए थे, पता नहीं, आपकी बाँह किसके गले में थी। इसी तरह के और इससे भी चुमीले वाक्य ।