७७ अप्सरा कनक की नसों में किसी ने तेज झटका दिया। वह कैथरिन को देखकर रह गई। ___"तुम क्रिश्चियन हो जाओ, राजकुमार तुम्हारे लायक नहीं। वह क्या तुम्हारी कद्र करेगा ? वह तुमसे दबता है, रखी आदमी।"
- "मैडम !" कड़ी निगाह से कचक ने कैथरिन को देखा । आँखों की
बिजली से कैथरिन काँप उठी । कुछ समझ न सकी। ____"मैं तुम्हारे भले के लिये कहती हूँ. तुम्हें ठीक राह पर ले चलने का मुझे अधिकार है।" कनक सँमल गई। मेरी तबियत अच्छी नहीं, माफ कीजिएगा, इस वक.मुझे छुट्टी दीजिए।" _____ कतक को देखती हुई कैथरिन खड़ी हो गई । कनक बैठी रही। कैथरिन नीचे उतर गई। "इसका दिमाग इस वक्त कुछ खराब हो रहा है। आप डॉक्टर की सलाह लें।" कहकर कैथरिन चली गई। कनक की आँखों के झरोखे से प्रथम योवन के प्रभात-काल में तमाम स्वप्नों की सफलता के रूप से राजकुमार ने ही झाँका था और सदा के लिये उसमें एक शूम्य रखकर तिरोहित हो गया। आज कनक के लिये संसार में ऐसा कोई नहीं, जितने लोग हैं, टूटे हुए उस यंत्र को बार-बार छेड़कर उसके बेसुरेपन का मजाक उड़ानेवाले । इसीलिये अपने आपमें चुपचाप पड़े रहने के सिवा उसके लिये दूसरा उपाय नहीं रह गया। जो प्रेम कभी थोड़े समय के लिये उसके अंधकार हृदय को मणि की तरह प्रकाशित कर रहा था, अब दूसरी की परिचित आँखों के प्रकाश में वह जीवन के कलंक की तरह स्याह पड़ गया है। अंधकार पथ पर जिस एक ही प्रदीप को हृदय में अंचल से छिपा वह अपने जीवन के तमाम मार्ग को आलोक्मय कर लेना चाहती थी, हवा के एक अ-कारण झोंके से वह दीप ही गुल हो गया। उस हवा के आने की पहले ही उसने कल्पना