अप्सरा ६५ ___ "यह बात नीचे से नहीं कह सकते थे क्या ?" तीन जगह से लोच खाती हुई, खास तौर से दरबान को अपनी नजाकत दिखाने के उद्देश्य से, महरी चली गई। इस दरबान से उसका कुछ प्रम था। पर ध्वनितस्व के जानकारों को इस दरबान के प्रति बढ़ते हुए अपने प्रेम का पता लगने का मौका अपने ही गले की आवाज से वह किसी तरह भी न देती थी। ___ ऊपर से उतरकर दासी राजकुमार को साथ ले गई। साफ अल्प- सजित एक बड़े-से कमरे में २१-२२ साल की एक सुंदरी युवती पलंग पर, संध्या की संकुचित सरोजिनी की तरह, उदास बैठी हुई थी। पलकों के पत्र आँसुओं के शिशिर से मारी हो रहे थे। एक ओर एक विखल अँगरेजी संवाद-पत्र पड़ा हुआ था। ____ "कई रोज बाद आए, रज्जू बाबू, अच्छे हो ?” युवती ने सहज धीमे स्वर से पूछा। "जी।" राजकुमार ने पलँग के पास जा, हाथ जोड़ सर मुका दिया। “बैठो।" कंधे पर हाथ रख युवती ने प्रति-नमस्कार किया। पास की एक कुर्सी पलंग के बिलकुल नजदीक खींचकर राजकुमार बैठ गया। "रज्जू बाबू, तुम बड़े मुरझाए हुए हो, चार ही रोज में आधे रह गए, क्या बात ?" ___"तबियत अच्छी नहीं थी।" इच्छा के रहते हुए भी राजकुमार को अपनी विपत्ति की बातें बतलाना अनुचित जान पड़ा। "कुछ खाया तो क्यों होगा ?" युवती ने सस्नेह पूछा। "नहीं, इस वक्त नहीं खाया।" राजकुमार ने चिंता से सर झुका लिया। "महरी-" महरी सुखासन में बैठी हुई, कुछ बीड़ों में चूना और कत्था छोड़, “चिट्ट-चिट्ट" सुपारी कतर रही थी। आवाज पा, सरीत. रखकर दौड़ी। "जी" महरी पलंग की बगल में खड़ी हो गई।
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