अन्यान्य भाषाओं के मुकाबले हिंदी में उपन्यासों की संख्या थोड़ी है। साहित्य तथा समाज के गले पर मुक्ताओं की माला की तरह इने-गिने उपन्यास ही हैं। मैं श्रीप्रेमचंदजी के उपन्यासों के उद्देश्य पर कह रहा हूँ। इनके अलावा और भी कई ऐसी ही रचनाएँ है, जो स्नेह तथा आदर-सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। इन बड़ी-बड़ी तोंदवाले औपन्यासिक सेठों की महफ़िल में मेरी दंशिताधरा अप्सरा उतरते हुए बिलकुल संकुचित नहीं हो रही, उसे विश्वास है कि वह एक ही दृष्टि से इन्हें अपना अनन्य भक्त कर लेगी। किसी दूसरी रूपवती अनिंद्य सुंदरी से भी आँखें मिलाते हुए वह नहीं घबराती, क्योंकि वह स्पर्धा की एक ही सृष्टि, अपनी ही विद्युत् से चमकती हुई चिरसौंदर्य के आकाश-तत्त्व में छिप गई है।
मैंने किसी विचार से अप्सरा नहीं लिखी, किसी उद्देश्य की पुष्टि इसमें नही। अप्सरा स्वयं मुझे जिस-जिस ओर ले गई, मैं दीपक पतंग की तरह उसके साथ रहा। अपनी ही इच्छा से अपने मुक्त जीवन-प्रसंग का प्रांगण छोड़ प्रेम की सीमित, पर दृढ़ बाहों में सुरक्षित, वैव रहना उसने पसंद किया।
इच्छा न रहने पर भी प्रासंगिक काव्य, दर्शन, समाज, राजनीति आदि की कुछ बातें चरित्रों के साथ व्यावहारिक जीवन की समस्या की तरह आ पड़ी है। वे अप्सरा के ही रूप-सचि के अनुकूल हैं। उनसे पाठकों को शिक्षा के तौर पर कुछ मिलता हो, अच्छी बात है; न मिलता हो, रहने दें; मैं अपनी तरफ़ से केवल अप्सरा उनकी भेंट कर रहा हूँ।
लखनऊ
"निराला"
१।१।३१