"मेरे सुबह की पलकों पर ऊषा की किरण।" राजकुमार कहता गया- "मेरे साहित्यिक जीवन-संग्राम की विजय । कनक के सूखे कंठ की तृष्णा को केवल तृप्त हो रहने का अल था; पूरी तृप्ति का भरा हुआ तड़ाग अभी दूर था। राजकुमार कहता गया- "मेरी आँखों की ज्योति, कंठ की वाणी, शरीर की आत्मा, कार्य की सिद्धि, कल्पना की तस्वीर, रूप की रेखा, डाल की कली, गले की माला, स्नेह की परी, जल की तरंग, रात की चाँदनी, दिन की छाह......." ___ "बस बस, इतनी कविता एक ही साथ, जब मैं याद भी कर सकें। पर कवि लोग, सुनती हूँ, दो ही चार दिन में अपनी ही लिखी हुई पंक्तियाँ भूल जाते हैं।" ____ "पर कविता तो नहीं भूलते।" 'फिर काव्य की प्रतिमा दूसरे ही रूप में उनके सामने खड़ी होती है। ___ "वह एक ही सरस्वती में सब मूर्तियों का समावेश देख लेते हैं।” ___ "और यदि मानसिक विद्रोह के कारण सरस्वती के अस्तित्व पर भी संदेह ने सिर उठाया ?" ____तो पक्की लिखा-पढ़ी मी बेकार है। कारण, किसी भी अदालत का अस्तित्व मानने पर ही टिका रहता है।" जवाब पा कनक चुप हो गई। एक घंटा रात हो चुकी थी। उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आई। कहा-"आज, मैंने कहा था, तुम्हें खुद पकाकर खिलाऊँगी। अब चलना चाहिए। राजकुमार उठकर खड़ा हो गया। कमक मी खड़ी हो गई। राज- कुमार का बाँया हाथ अपने दाहने हाथ में लपेट, चाँदनी में चमकती, लावण्य की नई लता-सी हिलती-डोलती सड़क की तरफ चली। "मैं अब भी तुम्हें नहीं समझ सका, कनक !" "मैं कोई गूढ समस्या बिलकुल नहीं हूँ। तुम मुमी से मुझे समझ
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