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अप्सरा

अदना सभी लोग कनक को देख रहे थे। राजकुमार के बैठ जाने पर कनक भी वहीं एक बगल बैठ गई। आगे की सीट में ड्राइवर की बाई तरफ अदली भी बैठ गया। गाड़ी चल दी। राजकुमार ने पीछे किसी को कहते हुए सुना, वाह रे तेरे भाग ! गाड़ी वेलिंटन स्ट्रीट से होकर धरम-तल्ले की तरफ चली गई।

सूर्य की अंतिम किरणें सीधे दोनो के मुख पर पड़ रही थी, जिससे कनक पर लोगों की निगाह नहीं ठहरती थी। सामने के लोग बड़े होकर उसे देखते रहते । इस तरह के मूषणों से सजी हुई महिला को अनवगुंठित, निस्वस्त्र-चितवन, स्वतंत्र रूप से, खुली मोटर पर विहार करते हुए प्रायः किसी ने नहीं देखा था ; इस अकाट्य युक्ति को क्टी हुई, प्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष कर लोगों को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। कनक के वेश में उसके मातृपक्ष की तरफ जरा भी इशारा नहीं था। कारण. उसके मस्तक का सिंदूर इस प्रकार के कुल संदेह की जड़ काट रहा था । कलकत्ते की अपार जनता की मानस-प्रतिमा बनी हुई,अपने नवीन नयनों की स्निग्ध किरणों से दर्शकों को प्रसन्न करनी कनक किले की तरफ जा रही थी।

कितने ही छिपकर आँखों से रूप पीनेवाले, मुंहचार, हवाखार उसकी मोटर के पीछे अपनी गाड़ी लगाए हुए, अनर्गल शब्दो में उसकी समालोचना करते हुए, उच्च स्वर से कभी-कभी सुनाते हुए मी, चले जा रहे थे । गाड़ी ईडेन-गार्डेन के पास से गुजर रही थी ।

"अभी वह स्थान देखिए-नहीं देख पड़ता।" कनक ने राजकुमार

का हाथ पकड़कर कहा।

"हाँ, पेड़ों की आड़ है, यह क्रिकेट-आउंड है, वह क्लब, पत्तियों में हर-हरा दीख रहा है। एक दमा फस्ट बटालियन से यहाँ हम लोगो का फाइनल कूचविहार-शील्ड-मैच हुआ था। भूली बात के आकस्मिक स्मरण से राजकुमार का स्वर कुछ मंद पड़ रहा था।

"आप किस टीम में थे?"

"विद्यासागर कॉलेज में तब मैं चौथे साल में था"