अप्सरा हृदय में एक अननुभूत विद्युत् प्रवेश कर गुदगुदा रही थी। यह दशा आज तक कभी नहीं हुई। मुक्त आकाश की उड़ती हुई रंगीन पये की विहग-परी राजकुमार के मन की डाल पर बैठी थी, पर किसी जंजीर से नहीं बँधी, किसी पीजड़े में नहीं आई। पर इस समय उसी की प्रकृति उसकी प्रतिकूलता कर रही है। वह चाहती है, कहें, पर प्रकृति उसे कहने नहीं देती । क्या यह प्यार वह प्रदीप है, जो एक ही एकांत गृह का अंधकार दूर कर सकता है ? क्या वह सूर्य और चंद्र नहीं, जो प्रति गृह को प्रकाशित करे ? ____इस एकाएक पाए हुए लाज के पाश को काटने की कनक ने बड़ी कोशिश की, पर निष्फल हुई। उसके प्रयत्न की शक्ति से आकस्मिक लज्जा के आक्रमण में ज्यादा शक्ति थी। कनक हाथ में सुरबहार लिए, रखों की प्रभा में चमकती हुई, सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही। इस समय राजकुमार की तरफ निगाह भी नहीं उठ रही थी। जैसे एक "तुम" तुम द्वारा उसने इसे इतना दे दिया, जिसके भार से आप-ही-श्राप उसके अंग दाता की दृष्टि में नत हो गए उस स्नेह सुख का मार हटाकर आँखें उठाना उसे स्वीकार भी नहीं। ___ बड़ी मुश्किल से एक बार सजल, अनिमेष हगों से, सर झुकाए हुए ही, राजकुमार को देखा। वह दृष्टि कह रही थी, क्या अब भी तुम्हे अविश्वास है ? क्या हमें अभी और मी प्रमाण देने की आवश्यकता होगी? उन आँखों की वाणी पढ़कर राजकुमार एक दूसरी परिस्थिति में आ गया, जहाँ प्रचंड क्रांति विवेक को पराजित कर लेती है, किसी स्नेह अथवा स्वार्थ के विचार से दूसरी श्रृंखला तोड़ दी जाती है, अनावश्यक परिणाम की एक भूल समझकर। संध्या हो रही थी। सूर्य की किरणों का तमाम सोना कनक के साने के रंग में, पीत सोने-सी साड़ी और सोने के रक्षाभूषणों में मिल- कर अपनी सुंदरता तथा अपना प्रकाश देखना चाहता था, और कनक
पृष्ठ:अप्सरा.djvu/५६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४९
अप्सरा