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अप्सरा

अप्सरा था। केवल लगाम अभी तक उसके हाथ में थी। उसकी रस-प्रियता के अंतर्लक्ष्य को ताड़कर मन-ही-मन वह सुखानुभव कर रहा था। पर दूसरे ही क्षण इस अनुभव को वह अपनी कमजोरी भी समझता था। कारण, इसके पहले ही वह अपने जीवन की प्रगति निश्चित कर चुका था। वह साहित्य तथा देश की सेवा के लिये आत्मार्पण कर चुका था। इधर कनक का इतना अधिक एहसान उस पर चढ़ गया था, जिसके प्रति उसकी मनुष्यता का मस्तक स्वतः नत हो रहा था। उसकी आज्ञा के प्रतिकूल आचरण की जैसे उसमें शक्ति ही न रह गई हो। वह अनुकूल-प्रतिकूल अनेक प्रकार की ऐसी ही कल्पनाएँ कर रहा था। सर्वेश्वरी ने कनक को सस्नेह पास बैठा लिया। कहा- ईश्वर ने तुम्हें अच्छा वर दान दिया है । वह तुम्हें सुखी और प्रसन्न करें। आज एक नई बात तुम्हें सुनाऊँगी । आज तक तुम्हें अपनी माता के सिवा पिता का नाम नहीं मालूम था । अब तुम्हारे पिता का नाम तुमसे कह देना मेरा धर्म है। कारण, तुम्हारे कार्यों से मैं देखती हूँ, तुम्हारे स्वभाव में पिता-पक्ष ही प्रबल है। बेटा, तुम रणजीतसिंह की कन्या हो। तुम्हारे पिता जयनगर के महाराज थे। उन दिनों मैं वहीं थी। उनका शरीर नहीं रहा । होते, तो वह तुम्हें अपनी ही देख-रेख में रखते । आज देखती हूँ, तुम्हारे पिता के कुल के संस्कार ही तुममें प्रबल हैं। इससे मुझे प्रसन्नता है । अब तुम अपनी अनमोल, अलम वस्तु सँभालकर रक्खो, उसे अपने अधिकार में करो। आगे तुम्हाय धर्म तुम्हारे साथ है।" माता की सहृदय बातों से कनक को बड़ा सुख हुआ। स्नेह-जल से वह सिक्त होकर बोली-"अम्मा, यह सब तो वह कुछ जानते ही नहीं, मैं कह भी नहीं सकती। किसी तरह इशारा करती हूँ, तो कोई जैसे मुझे पकड़कर दबा देता है। कुछ बोलना चाहती हूँ, तो गले से आवाज ही नहीं निकलती।" . "तुम उन्हें कुछ दिन बहला रक्खो, सब बातें आप खुल जायँगी :