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अप्सरा

राजकुमार ने धोती पहन ली। कनक फिर चली गई। अपनी एक रेशमी चादर ले आई। "इसे ओढ़ लीजिए।" राजकुमार ने ओढ़ लिया। एक नौकर ने कनक को बुलाया। कहा, माजी याद कर रही हैं। "मैं अभी आई।" कहकर कनक माता के पास चली गई। हृदय के एकांत प्रदेश में जीवन का एक नया ही रहस्य खुल रहा है। वर्षा की प्रकृति की तरह जीवन की धात्री देवी नए साज से सज रही है। एक श्रेष्ठ पुरस्कार को प्राप्त करने के लिये कभी-कभी उसके विना जाने हुए लालसा के हाथ फैल जाते हैं। आज तक जिस एक ही स्रोत से बहता हुआ वह चला आ रहा था. वह एक दूसरा मुख बदलना चाहता है। एक अप्सरा कुमारी, संपूर्ण ऐश्वर्य के रहते हुए भी, आँखों में प्रार्थना की रेखा लिए, रूप की ज्योति में जैसे उसी के लिये तपस्या करती हुई, आती है। राजकुमार चित्त को स्थिर कर विचार कर रहा था, यह सब क्या है ? क्या इस ज्योति से मिल जाऊँ ?-ना, जल जाऊँ तो ? इसे निराश कर दूं?--बुझा दूं ? न:, मै इतना कर्कश, तीव्र, निर्दय न हूँगा ; फिर ? श्राह ! यह चित्र कितना सुंदर, कितना स्नेहमय है-इसे प्यार करू ? नः मुझे अधिकार क्या ? मैं तो प्रतिश्रुत हूँ कि इस जीवन में भोग-विलास को स्पर्श भी नहीं करूँ प्रतिज्ञा की हुई प्रतिज्ञा से टल जाना महा पाप है, और यह स्नेह का निरादर! -

कनक के भावों से राजकुमार को अब तक मालूम हो चुका था कि वह पुष्प उसी की पूजा में चढ़ गया है । उसके द्वारा रक्षित होकर उसने अपनी सदा की रक्षा का भार उसे सौंप दिया है। उसके आकार, इंगित और गति इसकी साक्षी हैं। राजकुमार धीर, शिक्षित युवक था। उसे कनक के मनोभावों को समझने में देर नहीं लगी। जिस तरह से उसके उपकार का कनक ने प्रतिदान दिया, उसकी याद कर कनक के गुणों के साथ उस कोमल स्वभाव की ओर वह आकर्षित हो चुका