दारोगाजी उठकर बैठ गए। इसी सिलसिले में प्रासंगिक अप्रासंगिक सुनने लायक, न सुनने लायक बहुत-सी बातें कह गए । धीरे-धीरे लड़-कर आए हुए मैंसे की आँखों की तरह आँखें खून हो चली । भले-बुरे की लगाम मन के हाथ से छूट गई। इस अनर्गल शब्द-प्रवाह को बेहोश होने की घड़ी तक रोक रखने के अभिप्राय से कनक गाने लगी।
गाना सुनते-ही-सुनते मन विस्मृति के मार्ग से अंधकार में बेहोश हा गया।
कनक ने गाना बंद कर दिया। उठकर दारोगाजी के पॉकेट की तलाशी ली।कुछ नोट थे, और उसकी चिट्ठी । नोटों को उसने रहने दिया, और चिट्ठी निकाल ली।
कमरे के तमाम दरवाजे बंद कर ताली लगा दी।
( ७ )
कनक घबरा उठी। क्या करे, कुछ समझ में नहीं पा रहा था। राजकुमार को जितना ही सोचती, चिंताओं की छोटी-बड़ी अनेक तरंगों, श्रावतों से मन मथ जाता। पर उन चिंताओं के भीतर से उपाय की कोई भी मणि नहीं मिल रही थी, जिसकी प्रभा उसके मार्ग को प्रकाशित करती। राजकुमार के प्रति उसके प्रेम का यह प्रखर बहाव, बँधी हुई जल-राशि से छूटकर अनुकूल पथ पर बह चलने की तरह, स्वाभाविक और सार्थक था । पहले ही दिन, उसने राजकुमार के शौर्य का जैसा दृश्य देखा था, उसके सबसे एकांत स्थान पर, जहाँ तमाम जीवन में मुश्किल से किसी का प्रवेश होता है, पत्थर के अक्षरों की तरह उसका पौरुष चित्रित हो गया था। सबसे बड़ी बात जो रह-रहकर उसे याद आती थी, वह राजकुमार की उसके प्रति श्रद्धा थी। कनक ने ऐसा चित्र तब तक नहीं देखा था। इसीलिये उस पर राजकुमार का स्थायी प्रभाव पड़ गया। माता की केवल जबानी शिक्षा इस प्रत्यक्ष उदाहरण के सामने पराजित हो गई। और, वह जिस तरह की शिक्षा के भीतर से आ रही थी, परिचय के पहले ही प्रभाव में किसी मनोहर दृश्य पर उसकी दृष्टि का बँध जाना, अटक