खुले नयन जब रही सदा तिर,
स्नेह-तरंगों पर उठ-उठ गिर,
सुखद पालने पर मैं फिर-फिर,
करती थी शृंगार——
मुझे तब करते हैं वे प्यार।
कर्म-कुसुम अपने सब चुन-चुन,
निर्जन में प्रिय के गिन-गिन गुण,
गूथ निपुण कर से उनको सुन,
पहनाया था हार——
इसलिये करते हैं वे प्यार।"
कनक ने कल्याण में भरकर इमन गाया। नीचे कई सौ आदमी मंत्र-मुग्ध से खड़े हुए सुन रहे थे । गाने से प्रसन्न हो सर्वेश्वरी भी अपने कमरे से उठकर कनक के पास आकर बैठ गई। गाना समाप्त हुआ। सर्वेश्वरी ने प्यार से कन्या का चिंतित मुख चूम लिया।
नीचे से एक नौकर ने आकर कहा, विजयपुर के कुँवर साहब के यहाँ से एक बाबू आए हैं, कुछ बातचीत करना चाहते हैं।
सर्वेश्वरी नीचे अपने दो मंजिलेवाले कमरे में उतर गई। यह कनक का कमरा था। अभी थोड़े ही दिन हुए, कनक के लिये सर्वेश्वरी ने सजाया है।
कुछ देर बाद सर्वेश्वरी ऊपर आई । कनक से कहा, कुँवर साहब, विजयपुर, तुम्हारा गाना सुनना चाहते हैं।
"मेरा गाना सुनना चाहते हैं?" कनक सोचने लगी। “अम्मा !" कनक ने कहा- "मैं रईसों की महफिल में गाना नहीं गाऊँगी।"
“नहीं, वे यहीं आएँगे। बस, दो-चार चीजें सुना दो। तबियत अच्छी न हो, तो कहो, कह दें, और कभी आएँगे।"
"अच्छा अम्मा, किसी पत्त पर, कीमती-खूबसूरत पत्ते पर पड़ी हुई ओस की बूंद अगर हवा के झोंके से जमीन पर गिर जाय तो