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अप्सरा

लोग इस पर भी कहते थे, क्या मँजी हुई आवाज है! आपको मिस कनक का पता मालूम न था। इससे और उतावले हो रहे थे। जैसे ससुराल जा रहे हों, और स्टेशन के पास गाड़ी पहुँच गई हो।

देखते-देखते संध्या के छः का समय हुआ। थिएटर-गेट के सामने पान खाते, सिगरेट पीते, हँसी-मजाक़ करते हुए बड़ी-बड़ी तोंदवाले सेठ, छड़ियाँ चमकाते, सुनहली डंडो का चश्मा लगाए हुए कॉलेज के छोकड़े, अँगरेज़ी अखबारों की एक-एक प्रति लिए हुए हिंदी के संपादक, सहकारियों पर अपने अपार ज्ञान का बुखार उतारते, पहले ही से कला की कसौटी पर अभिनय की परीक्षा करने की प्रतिज्ञा करते हुए टहल रहे थे। इन सब बाहरी दिखलावों के अंदर सबके मन की आँखें मिसों के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं; उनके चकित दर्शन, चंचल चलन को देखकर चरितार्थ होना चाहती थीं। जहाँ बड़े-बड़े आदमियों का यह हाल था, वहाँ थर्ड क्लास तिमंज़िले पर, फटी-हालत, नंगेबदन, रूखी-सूरत बैठे हुए बीड़ी-सिगरेट के धुएँ से छत भर देनेवाले, मौक़े-बेमौक़े तालियाँ पीटते हुए इनकोर-इनकोर के अप्रतिहत शब्द से कानों के पर्दे पार कर देनेवाले, अशिष्ट, मुँहफट, क़ुली-क्लास के लोगों का बयान ही क्या? वहीं इन धन-कुबेरों और संवाद-पत्रो के सर्वज्ञों, वकीलों, डॉक्टरों, प्रोफ़ेसरों और विद्यार्थियों के साथ ये लोग भी कला के प्रेम में साम्यवाद के अधिकारी हो रहे थे।

देखते-देखते एक लॉरी आई। लोगों की निगाह तमाम बाधाओं को चीरती हुई, हवा की गोली की तरह, निशाने पर, जा बैठी।पर,उस समय, गाड़ी से उतरने पर, वे जितनी, मिस डली, मिस कुंदन, मिस हीरा, पन्ना, मोती, पुखराज, रमा, क्षमा, शांति, शोभा, किशमिस और अंगूर बालाएँ थीं, जिनमें किसी ने हिरन की चाल दिखाई, किसी ने मोर की, किसी ने हस्तिनी की, किसी ने नागिन की, सब-की-सब जैसे डामर से पुती, आफ्रिका से हाल ही आई हुई, प्रोफेसर डोवर या मिस्टर चटर्जी की सिद्ध की हुई, हिंदोस्तान की आदिम जाति की ही कन्याएँ और बहनें थीं, और ये सब इतने बड़े-