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अप्सरा
 

कनक ने अस्फुट वाणी में मन-ही-मन प्रतिज्ञा की---'किसी को प्यार नहीं करूंँगी। यह हमारे लिये आत्मा की कमजोरी है, धर्म नहीं।"

माता ने कहा---"संसार के और लोग भीतर से प्यार करते हैं, हम लोग बाहर से।"

कनक ने निश्चय किया---"और लोग भीतर से प्यार करते हैं, मै बाहर से करूंँगी।"

माता ने कहा---"हमारी जैसी स्थिति है, इस पर ठहरकर भी हम लोक में वैसी ही विभूति, वैसा ही ऐश्वय, वैसा ही सम्मान अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त कर सकती हैं; साथ ही, जिस आत्मा को और लोग अपने सर्वस्व का त्याग कर प्राप्त करते हैं, उसे भी हम लोग अपनी कला के उत्कर्ष के द्वारा, उसी में,प्राप्त करती हैं ; उसी में लीन होना हमारी मुक्ति है। जो आत्मा सभी सृष्टियों की सूक्ष्मतम तंतु की तरह उनके प्राणों के प्रियतम संगीत को झंकृत करती, जिसे लोग बाहर के कुल संबंधों को छोड़, ध्यान के द्वारा तन्मय हो प्राप्त करते,उसे हम अपने बाह्य यंत्र के तारों से झंकृत कर, मूर्ति में जगा लेती,फिर अपने जलते हुए प्राणों का गरल, उसी शिव को,मिलकर पिला देती हैं। हमारी मुक्ति इस साधना के द्वारा होती है। इसीलिये ऐश्वय पर हमारा सदा ही अधिकार रहता है। हम बाहर से जितनी सुंदर,भीतर से उतनी ही कठोर इसीलिये हैं। और-और लोग बाहर से कठोर पर भीतर से कोमल हुआ करते हैं, इसीलिये वे हमें पहचान नहीं पाते, और, अपने सर्वस्व तक का दान कर, हमें पराजित करना चाहते हैं, हमारे प्रेम को प्राप्त कर, जिस पर केवल हमारे कौशल के शिव का ही एकाधिकार है। जब हम लोग अपने इस धर्म के गर्त से, मौखरिए की रागिनी सुन मुग्ध हुई नागिन की तरह, निकल पड़ती हैं, तब हमारे महत्व के पति भी हमें कलंकित अहल्या की तरह शाप से बॉध,पतित कर चले जाते हैं; हम अपनी स्वतंत्रता के सुखमय बिहार को छोड़ मौखरिए की संकीर्ण टोकरी में बंद हो जाती हैं, फिर वही हमें इच्छानुसार नचाता, अपनी स्वतंत्र इच्छा के वश में हमें गुलाम बना