और वस्तुएँ उसकी दृष्टि में मरीचिका के ज्योति-चित्रों की तरह आतीं,अपने यथार्थ स्वरूप में नहीं।
कनक की दिनचर्या बहुत साधारण थी। दो दासियाँ उसकी देख-रेख के लिये थीं। पर उन्हें प्रतिदिन दो बार उसे नहला देने और तीन-चार बार वस्र बदलवा देने के इंतजाम में ही जो कुछ थोड़ा-सा काम था. बाकी समय यों ही कटता था। कुछ समय साड़ियाँ चुनने में लग जाता था। कनक प्रतिदिन शाम को मोटर पर क़िले के मैदान की तरफ निकलती थी। ड्राइवर की बग़ल में एक अर्दली बैठता था। पीछे की सीट पर अकेली कनक । कनक प्रायः आभरण नहीं पहनती थी।कभी-कभी हाथों में सोने की चूड़ियाँ डाल लेती थी, गले में एक हीरे की कनी का जढा़ऊ हार ;कानों में हीरे के दो चंपे पड़े रहते थे। संध्या समय, सात बजे के बाद से दस तक, और दिन में भी इसी तरह सात से दस तक पढ़ती थी । भोजन-पान में बिलकुल सादगी, पर पुष्टिकारक भोजन उसे दिया जाता था।
(३)
धीरे-धीरे, ऋतुओं के सोने के पंख फड़का, एक साल और उड़ गया। मन के खिलते हुए प्रकाश के अनेक झरने उसकी कमल-सी आँखों से होकर बह गए। पर अब उसके मुख से आश्चर्य की जगह ज्ञान की मुद्रा चित्रित हो जाती, वह स्वयं अब अपने भविष्य के पट पर तूलिका चला लेती है। साल-भर से माता के पास उसे नृत्य और संगीत की शिक्षा मिल रही है। इधर उसकी उन्नति के चपल क्रम को देख सर्वेश्वरी पहले की कल्पना की अपेक्षा शिक्षा के पथ पर उसे और दूर तक ले चलने का विचार करने लगी, और गंधर्व-जाति के छूटे हुए पूर्व-गौरव को स्पर्धा से प्राप्त करने के लिये उसे उत्साह भी दिया करती। कनक अपलक ताकती हुई माता के वाक्यों को सप्रमाण सिद्ध करने की मन-ही-मन निश्चय करती, प्रतिज्ञाएँ करती। माता ने उसे सिखलाया--- "किसी को प्यार मत करना। हमारे लिये प्यार करना आत्मा की कमज़ोरी है। यह हमारा धर्म नहीं।"