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सजन, करो संतत रस-वर्षा संजन, करो सन्तत रस-वर्षण, करो स्नेह फुहियों से मेरे प्यासे रोम-रोम का हर्षण सजन, करो संतत रस-चर्षण । ? ललक निहारे हैं मैंने वे रस-राते तव नयन अचंचल मैंने निरखे हैं मद भीने, स्वप्न-भार से सुके हगंचल; प्रियतम, तव नयनों में मैंने निरखा अपना जीवन-मंगल; उन्हीं दृगों से नित बरसाओ मेरे मरु-जीवन में रस-कण; सजन, करो संतत रस-वर्षण । २ कितना नीलाकाश हगः में, मेरे प्राण, दुराए हो तुम? कितना सीमाहीन दिगन्तर नयनों में भर लाए हो तुम ? कितना जल-थल अनिलांबर यह, कहो पार कर आए हो तुम ? कहाँ-कहाँ तुम मुझे मिले हो ? बोलो, मेरे नव सनेह-धन ! सजन, करो संतत रस-वर्षण । अठहत्तर