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प्रपलक ३ बदन मलिन, तन छीन हो चला, मैं नवीन प्राचीन हो चला, फिर भी हिय में है इक उलझन, कुछ लहराती-सो, कुछ उन्मन; एक अजब गन्नाटा-सा है इस हस्ती के अपनेपन में, समा गई मादकता मन में । ४ इस मदिरा के गन्नाटे में, बैठ विजन के सन्नाटे में, अपने चित्र बनाता मैं, जन का मन बहलाता हूँ मैं, जग के बीहड़ विजन देश को परिणत करता हूँ उपवन में; समा गई मादकता मन में । श्री गणेश कुटीर, कानपुर, अपराह, दिनाङ्क २३-३-४० होलिकोत्सव } सैतीस