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ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं हम तो आठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं; यो स्मृति-आवेशों में हम नित जिया करें हैं, मरा करें हैं। ? स्मरण-फलका बिन हम वियोग के शराघात कैसे सह जाते ? इनके बिन, बोलो तो, कैसे हम अपने मन की कह पाते ? यदि न स्मरण-अवलम्बन मिलता तो हम कब के ही बह जाते ! हम तो इसी तरी के बल, प्रिय, यह विछोह-नद तरा करें हैं !! हम तो आठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं । २ हम कल्पना-हिंडोले में, प्रिय, तव छबि दुलराया करते हैं। मन-सर में लख तव मुख-अंबुज निज हिय हुलसाया करते हैं, पुलक-पुलक तव श्राराधन के गायन हम गाया करते हैं; यो ही, स्मरणों से, हम अपनी रीती घड़ियाँ भरा करें हैं; हम तो पाठों याम, प्राणधन, ध्यान तुम्हारा धरा करें हैं । कभी तुम्हारी स्मिति की सुधि है, कभी खीझ की, कभी झिझक की; कभी पधारी विहल सुधि तव सर्वार्पण मय लोचन-टक की; सफलक-ठाल।