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एक चित्रकार 'रूप' पर कुछ चित्र बनाकर लाया भी था---परवें उसे पसन्द न आये। उसने कहा--"लेखक जो कुछ कह नहीं सकता है---चित्रकार उसी कमी को पूरी करता है। उत्तम चित्रकार वही है। इन चित्रो ने तो इस अवगुण्ठनवती रचना सुन्दरी को पशु की तरह नगी कर दिया है।" उसने वे चित्र रद्दी की टोकरी मे डाल दिये थे।

वह एकाएक मर गया। साहित्य के भाग फूट गये। अब इस रचना को क्या अलंकार मयस्सर होगा? हिन्दी के प्रकाशको की दृष्टि निराली है---बहुत कम उनमे साहित्य के सौन्दर्य को परख सकते हैं। उनकी दृष्टि बर्दा-फरोशों की सी है। गुलामी के जमाने मे जब कोई खूबसूरत जवान लड़की बाजार मे बिकने आती थी तो बर्दा फरोश (मनुष्यो का व्यापारी) उसके सौन्दर्य को इस दृष्टि से निरखता था कि बाजार मे इसके कितने दाम उठेगे। हिन्दी के प्रकाशको की यही दृष्टि है। लेखक अभागे इतने पतित और आत्माभिमान शून्य हो गये है कि अपनी अपनी रचना सुन्दरियो का हाथ थामे इन्ही बर्दा फरोशो के हार पर झख मारते फिरते है, और कहते ग्लानि होती है---उसके एक २ सौन्दर्य स्थल को उघाड उघाड़ कर दिखाते है। यह मोल भाव का महत्त्व है। यह कमीन पैसे की अमलदारी है। मैं भी वैसा हो अभागा लेखक हूँ। अतएव मुझे यह आशा करने