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सब खत्म हो गया है-नहीं नहीं उससे मैंने इस्तीफा दे दिया है। यह देखो, ऊपर वाले और ऊपर जा रहे हैं और नीचे वाले ऊपर आ रहे हैं। कहाँ? काम तो कहीं भी खत्म नहीं हुआ है? तब सबसे उपराम होकर, सबको काम करता देखकर कैसे नींद आवेगी? विश्रान्ति कहाँ मिलेगी? दिन कैसे कटेंगे? मरने के तो अभी बहुत दिन है।

हों, पर अब गोड़े नहीं उठते। कमर टूट गई है, दिल बैठ गया है, रक्त ठण्डा पड़ गया है। इतना करके कुछ न पाया, आगे क्या पावेगे? कुछ नहीं। सब मृगतृष्णा है---मृगतृष्णा। इस ऊँचाई का कुछ अन्त तो है नहीं, ठेठ तक वही पगडण्डी गई है। यही तंग पगडंडी, जब तक चोटी पर न पहुँचे और दस हाथ चढ़ने पर भी यही पगडंडी, यही एक तरफ ऊँचा पहाड़, यही एक तरफ अतल पाताल---सब वही है। और चोटी? चोटी का नाम न लो, वहाँ नहीं पहुँचा जायगा। हर्गिज नहीं पहुँचा जायगा। आ मन! सन्तोष से यहीं बैठ।



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