क्या? उद्धार का---छुटकारे का कोई भी तो उपाय नहीं
दीखता। कुछ भी तो नज़र नहीं आता। क्या मरना पड़ेगा? अभी से? इतनी जल्दी? अभी तो इच्छा नहीं है। पिता जी इस उम्र मे मेरे पिता भी नहीं हुए थे। ताऊ जी अभी जीवित है! मैं अभी से क्यों? पर इस तरह तो निर्वाह होना कठिन है मजबूरी है। अच्छा मरूँगा। मजबूरी है।
पर मौत है कहाँ? उसका दफ्तर भी कहीं ढूँढना होगा। उसके मुनीम गुमाश्ते चपरासी इन्हे हक्क देना होगा? यह तो क़ायदे की बात है। यह देखो गालों की हड्डियाँ निकल आई हैं---माथे मे गढ़ा पड़ गया है। आँखे गढ़ों मे धंस गई हैं---चेहरे पर स्याही दौड़ गई है शायद वह आ रही है पर हाय! हाय! मैं तो मरने से पहले ही कुरूप हुआ जाता हूँ।
आशा ने कितने झॉसे दिये थे, उत्साह ने कितनी पीठ ठोकी थी, मनने कितनी हिम्मत बाँधी थी---सब सटक सीता-राम हुए। सब खसक गये। बनी के सब साथी थे। अकेली जवानी कबतक चलेगी! वे हवाई मृगतृष्णा निकले। सब से वाजदावा देने को तय्यार हूँ---पर निकलना कठिन है, गुनाह बेलज्ज़त! मरना झपना सब औरों के लिये...कृतज्ञता का पता नहीं-जिक्र भी नहीं। मार डाला, अधमरा कर